Meaning and definition of Development विकास का अर्थ एवं परिभाषा
विकास का अर्थ एवं परिभाषा
विकास का अर्थ (development meaning in hindi) – सामान्य व्यक्ति की दृष्टि से वृद्धि और विकास लगभग समानार्थी है, परंतु मनोविज्ञान के क्षेत्र में दोनों में अंतर है । विकास से अभिप्राय बढ़ना नहीं है। विकास का अर्थ परिवर्तन है । परिवर्तन एक प्रक्रिया है जो सदैव चलती रहती है ।
विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो सतत चलती है तथा जिसमें गुणात्मक परिवर्तन तथा परिमाणात्मक (मात्रात्मक) परिवर्तन दोनों सम्मिलित रहते हैं। गुणात्मक परिवर्तन जैसे- शिशुओं की उम्र बढ़ने पर सांवेगिक नियंत्रण में परिवर्तन, विशेष भाषा को सीखने की क्षमता में परिवर्तन आदि । परिमाणात्मक परिवर्तन; जैसे- शरीर का कद बढ़ना, वजन बढ़ना, बनावट में परिवर्तन आदि से है।
विकास को समझते समय ही दो और शब्द वृद्धि व परिपक्वता को समझ लेना चाहिए। वृद्धि का तात्पर्य सिर्फ परिमाणात्मक परिवर्तन से है जिसे मापा जा सके; जैसे- बालक की ऊँचाई व भार में वृद्धि। परिपक्वता का तात्पर्य एक ऐसी अवस्था से है जो आंतरिक अभिवृद्धि तथा आनुवंशिक रूप से स्वतः निर्धारित तथ्यों द्वारा निर्देशित होता है एवं जिस पर प्रशिक्षण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
उदाहरण – बच्चों का खिसकना, घुटने के बल चलना, खड़ा होना, दौड़ना आदि।
• विकास की प्रक्रिया गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक होती है।
विकास बहुआयामी व प्रासंगिक होता है।
• विकास की गति व्यक्तिगत अंतर से प्रभावित होती हैं।
• विकास की प्रक्रिया सिर से पैर की ओर बढ़ती है जबकि मानसिक क्षेत्र में वह मूर्त से अमूर्त की ओर होती है।
• विकास सामान्य अनुक्रिया से विशिष्ट अनुक्रिया की ओर होती है।
• शारीरिक विकास तथा मानसिक विकास आपस में धनात्मक रूप से सहसंबंधित होते हैं।
vikas kya hai :
विकास क्या है development in hind – बालक के विकास की प्रक्रिया। बालक के विकास की प्रक्रिया उसके जन्म से पूर्व गर्भ में ही प्रारम्भ हो जाती है। विकास की इस प्रक्रिया में वह गर्भावस्था, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढावस्था इत्यादि कई अवस्थाओं से गुजरते हुए परिपक्वता की स्थिति प्राप्त करता है।
1- मात्रात्मक परिवर्तन
2- गुणात्मक परिवर्तन।
विकास की प्रक्रिया
व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया नैसर्गिक स्वाभाविक और प्राकृतिक है गर्भावस्था में बालक का विकास क्रम प्रारंभ हो जाता है जन्म से लेकर किशोरावस्था तक की अत्यधिक तीव्र होती है यद्यपि किशोरावस्था के पश्चात विकास की गति में उतनी तीव्रता नहीं रहती तथापि मृत्यु तक यह विकास क्रम थोड़ा बहुत किसी न किसी रूप में गतिशील रहता है व्यक्ति के विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसकी विकास प्रक्रिया पर समुचित ध्यान दिया जाए विकास की विभिन्न अवस्थाओं में उसे इस प्रकार का शांत, स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण प्रदान किया जाए जिसमें बालक का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक आदि विकास भली प्रकार से हो सके।
विकास के विभिन्न सिद्धांतों और अवस्थाओं का ज्ञान माता पिता और शिक्षक के लिए बड़ा उपयोगी है बालक के व्यक्तित्व के संतुलित विकास के लिए माता-पिता को यह देखना होगा कि –
1.उनके बालक को उचित वातावरण प्राप्त हो
2.उसे संतुलित भोजन मिले
3.अच्छी संगति मिले
4.उसे खेलने की स्वतंत्रता हो
5. उसे उचित मात्रा में स्नेह प्राप्त हो
6.उसी सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार मिले
7.उसकी जिज्ञासा की संतुष्टि हो
8. उसी आत्मक प्रदर्शन के अवसर मिले
9.उसके संबंधों का दमन ना हो और उसमें पराजय भावना अंतर्द्वंद और हीनता की भावना का विकास न हो।
मनोवैज्ञानिकों की अवधारणा है बालक की गति विकास भाषा संबंधी कौशलों तथा विविध संवेगात्मक प्रवृत्तियों पर परिवार तथा समाज के वातावरण का भारी प्रभाव पड़ता है। अतः माता-पिता के लिए बालक की विकास प्रक्रिया का ज्ञान अत्यधिक आवश्यक है।
शिक्षा का मुख्य कार्य बालक के विकास में सहायता देना है अतः शिक्षक को बालक के विकास की अवस्थाएं का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए विकास के सिद्धांतों और अवस्थाओं का पूर्ण ज्ञान होने पर ही शिक्षक बालक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार अपने पाठ्यक्रम की व्यवस्था कर सकता है सहगामी क्रियाओं का आयोजन कर सकता है और अपनी शिक्षण पद्धति को विकसित कर सकता है उदाहरण के लिए शेष अवस्था के बालकों की शिक्षण पद्धति किशोरावस्था के बालों को की शिक्षण पद्धति से भिन्न होगी और तो विकास की अवस्थाएं से परिचित शिक्षक ही अनुकूल शिक्षण पद्धति का प्रयोग कर सकता है बारह वर्ष की ऑल वाले बालक का पाठ्यक्रम पांच वर्ष आयु वाले बालकों के पाठ्यक्रम से भिन्न होगा इसलिए विकास के सिद्धांतों से परिचित शिक्षक ही उनके अनुकूल पाठ्यक्रम का अध्ययन कर आ सकता है बाल विकास की गति यों की जानकारी रखने वाला शिक्षक ही बालक को उसके शारीरिक मानसिक और सामाजिक विकास के अनुकूल सहगामी क्रियाओं का आयोजन कर सकता है और उनके विकास स्तर की अनुकूल शिक्षा की व्यवस्था कर सकता है स्पष्ट है कि विकास के विभिन्न सिद्धांतों और अवस्थाओं के ज्ञान से ही शिक्षक का दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक और गत्यात्मक हो सकता है
vikas ki paribhasha
विकास की परिभाषा
हरलॉक (Hurlock) का कथन है,
“विकास अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है। इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तन का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं और नवीन योग्यताएं प्रकट होती हैं। “
हेनरी सीसल बील्ड ने विकास को परिभाषित करते हुए कहा है-
“ (i) विकास के कारण और उसकी प्रक्रिया, किसी क्रिया में निवृत प्रक्रिया, (ii) मानव मस्तिष्क में सभ्यता की, प्राणी के जीवन के विकास की अवस्था या विकास की वह प्रक्रिया जो अभिवृद्धि, प्रसार आदि में योग देने की स्थिति में हो, (iii) विकास की प्रक्रिया का परिणाम जो अनेक कारण, दशाएं, वर्ग भेद आदि सामाजिक समस्याओं के रूप में प्रकट होते हैं । “
जेम्स ड्रेवर ने विकास को परिभाषित करते हुए लिखा है-
“विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में प्राणी में सतत् रूप से व्यक्त होती है। यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक होता है । यह विकासतंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है। यह प्रगति का मानदण्ड है और इसका आरंभ शून्य से होता है । “
बोरिंग (Boring)के शब्दों में –
“विकास से तात्पर्य आवृत्ति या स्वरूप में परिवर्तन से होता है। शारीरिक संरचना या ढांचे में परिवर्तन का कारण अभिवृद्धि है।”
चजरशील्ड (Jersild)के शब्दों में-
“विकास शब्द का अर्थ जटिल प्रक्रियाओं का समूह है जिनसे निसंकोच अंडे से एक परिपक्व व्यक्ति का उदय होता है।”
गोर्डन (Garden)के शब्दों में –
“विकास ऐसी प्रक्रिया है जो बालक के जन्म से लेकर तब तक चलती रहती है जब तक कि वह पूर्ण विकास प्राप्त नहीं कर लेता है।”
हैरिस (Harees)के शब्दों में –
“विकास से तात्पर्य प्राणी को समय के साथ संरचनाओं में जटिल परिवर्तन, समग्र को सम्मिलित करते हुए स्व नियंत्रण एवं स्थायित्व के साथ वयस्क की स्थिति को प्राप्त करना है। विकास का अर्थ है-व्यवस्थित और संगति पूर्ण तरीके से परिवर्तनों का एक प्रगतिशील श्रृंखला में होना।”
वस्तुतः विकास चिंतन का मूल है। यह एक बहुमुखी क्रिया है। और इसमें केवल शरीर के अंगों के विकास का ही नहीं प्रत्युत सामाजिक, सांवेगिक अवस्थाओं में होने वाले परितर्वनों को भी शामिल किया जाता है। इसी के अंतर्गत शक्तियों और समताओं के विकास को भी गिना जाता है ।
विकास की विशेषताएं (Characteristics of Development)
1- विकास एक प्राकृतिक एवं सामाजिक प्रक्रिया है।
2- विकास एक अनवरत प्रक्रिया है।
3- विकास एक विशेष क्रम में होता है और भिन्न-भिन्न आयु स्तर पर विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है।
4- व्यक्तित्व के सभी पक्षों (संवेगात्मक, सामाजिक आदि का विकास समान गति से नहीं होता है।
5- विकास की कोई सीमा नहीं होती है।
6- विकास में मात्रात्मक वृद्धि और गुणात्मक दोनों होते हैं।
7- विकास के गुणात्मक उन्नति को गणितीय विधियों के द्वारा नहीं मापा जा सकता है।
8- विकास को मापा नहीं जा सकता बल्कि इसका निरीक्षण किया जाता है इसका मापन अप्रत्यक्ष रूप में व्यवहार के द्वारा करते है।
9- विकास एकीकृत एवं बहुआयामी है।
10- विकास वंशानुक्रम और वातावरण दोनों पर निर्भर करता है।
11- जन्म लेने से पूर्व एवं जन्म लेने के बाद परिपक्व होने तक बालक में किस प्रकार के परिवर्तन होते हैं?
12- बालक में होने वाले परिवर्तनों का विशेष आयु के साथ क्या सम्बन्ध होता है ? आयु के साथ होने वाले परिवर्तनों का क्या स्वरूप होता है?
13- बालकों में होने वाले उपरोक्त परिवर्तनों के लिए कौन-से कारक जिम्मेदार होते हैं? बालक में समय-समय पर होने वाले उपरोक्त परिवर्तन उसके व्यवहार को किस प्रकार से
प्रभावित करते हैं?
14- क्या पिछले परिवर्तनों के आधार पर बालक में भविष्य में होने वाले गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तनों की भविष्यवाणी की जा सकती है?
15- क्या सभी बालकों में वृद्धि एवं विकास सम्बन्धी परिवर्तनों का स्वरूप एक जैसा होता है अथवा व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुरूप इनमें अन्तर होता है ?
16- बालकों में पाए जाने वाले व्यक्तिगत विभिन्नताओं के लिए किस प्रकार के आनुवंशिक एवं परिवेशजन्य प्रभाव उत्तरदायी होते हैं?
17- बालक के गर्भ में आने के बाद निरन्तर प्रगति होती रहती है। इस प्रगति का विभिन्न आयु तथा अवस्था विशेष में क्या स्वरूप होता है?
18- बालक की रुचियों, आदतों, आदतों, दृष्टिकोणों, जीवन-मूल्यों, स्वभाव तथा उच्च व्यक्तित्व एवं व्यवहार-गुणों में जन्म के समय से ही जो निरन्तर परिवर्तन आते रहते हैं उनका विभिन्न आयु वर्ग तथा अवस्था विशेष में क्या स्वरूप होता है तथा इस परिवर्तन की प्रक्रिया की क्या प्रकृति होती है?
विकास के नियम व उपयोगिता
(i). विकासात्मक पैटर्न पूर्व प्रसूतिकाल में तथा जन्म के बाद भी एक खास क्रम में होता है अर्थात् पूर्वानुमेय होता है; जैसे- शिशु पहले सिर उठाता है, इसके बाद वह बैठना प्रारंभ कर देता, फिर घुटने चलना शुरू करता है, खड़ा होता है फिर चलता है।
(ii). विकास में परिपक्वता तथा प्रशिक्षण दोनों महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पूर्व प्रसवकाल में सिर्फ परिपक्वता का महत्त्व होता है।
(iii). विकासात्मक पैटर्न हालांकि एक समान होता है फिर भी प्रत्येक बालक में विकास अपने ढंग से तथा भिन्न-भिन्न रफ्तार से होता है।
(iv). विकास में पर्यावरणीय कारक भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
(v). समाज बच्चों से भी उनकी उम्र के अनुसार कुछ उम्मीद करता है जिसे सामाजिक प्रत्याशा कहा जाता है। जिसे बालक समाज व संस्कृति से ही सीखता है।
(vi). विकास के नियम अर्थात विकास के पैटर्न की जानकारी यदि माता-पिता व शिक्षक को हो तो दोनों के लिए फायदेमंद होती है। बालकों के व्यवसायिक निर्देशन में, वातावरण के साथ समायोजित करने के लिए प्रेरणा देने में।
(vii). विकास के नियम के आधार पर शिक्षकों को यह पता चलता है कि संतुलन की अवस्था में बालक खुश रहते हैं जबकि असंतुलन की अवस्था में अशांत रहते हैं। ऐसे में बालकों में संतुलन की व्यवस्था में मार्गदर्शन करने से ज्यादा लाभ होगा।
विकास की अवस्थाएँ
मनुष्य का जीवन माँ के गर्भ से प्रारंभ होता है तथा जन्म के बाद सामान्यतः विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए मृत्यु को प्राप्त करता है। इन अवस्थाओं के बारे में अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों की अलग-अलग राय है। रॉस व फ्रॉयड ने 5 अवस्था बताए हैं जबकि कॉलसेनिक 10 तथा पियाजे ने 4 व ब्रूनर ने तीन अवस्था बताए हैं।
भारत में सामान्यतः विकास की अवस्था को निम्न विभाजन है-
(i). पूर्व प्रसूतिकाल (Parental Period) : यह अवस्था के गर्भधारण से लेकर जन्म तक की होती है।
(ii). शैशवास्था (Infancy) : यह अवस्था जन्म से लेकर 2 साल (वर्ष) तक की होती है।
(iii). बाल्यावस्था
(a) प्रारंभिक बाल्यावस्था (Early Childhood ) – 2 से 6 साल
(b). उत्तर बाल्यावस्था (Later Childhood ) – 6 से 12 साल
(iv). किशोरावस्था (Adolescence)- 12 साल से 18 साल
(v). युवावस्था – 18 वर्ष से 25 वर्ष तक (वर्तमान में 30 वर्ष)
(vi). प्रौढ़ावस्था 30 वर्ष से 60 वर्ष
(vii). वृद्धावस्था 60 वर्ष से मृत्यु तक
शिक्षा मनोविज्ञान व बाल मनोविज्ञान के लिए सभी अवस्था का अध्ययन महत्त्वपूर्ण नहीं है।
प्रमुख अवस्थाएँ
1. शैशवावस्था
2. बाल्यावस्था
3. किशोरावस्था
1. शैशवावस्था
जन्म से लेकर 2 वर्ष तक की अवस्था है।
पुनरावृत्ति, प्रयास व त्रुटिपूर्ण व्यवहार, वस्तु की प्रधानता, छोटे-छोटे शब्दों का प्रयोग आदि।
2. बाल्यावस्था
(A) प्रारंभिक बाल्यावस्था
यह अवस्था 2 वर्ष से 6 वर्ष तक की मानी जाती है। इस अवस्था में बालक जिद्दी, विरोधात्मक, आज्ञा न मानने वाले अधिकांश व्यवहार करते हैं। बालक खिलौने से खेलना ज्यादा पसंद करता है, जिज्ञासा बालकों में बहुत होता है। बालकों में शारीरिक परिवतर्तन भी तेजी से होते हैं। नकल करने की प्रवृत्ति बालकों में अत्यधिक देखी जाती है। बालक कुछ-न-कुछ अकसर बोलते रहते हैं, भाषा का विकास होता है। बालकों में जो संवेग देखने को मिलते हैं वो है क्रोध, डर, डाह, खुशी, दुःख, उत्सुकता आदि। बालकों को लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है। अपने उम्र के बच्चों के साथ इनका दोस्ताना संबंध बढ़ता है।
(B) उत्तर बाल्यावस्था
यह अवस्था 6 वर्ष से 12 (कुछ मनोवैज्ञानिक इसे 6 से 11 साल भी मानते हैं) वर्ष तक की मानी जाती है। यह अवस्था है जिसमें बालक स्कूल जाना प्रारंभ कर देते हैं। बालक शरारत अधिक करते हैं, समूह में रहना पसंद करते हैं, संवेग की अभिव्यक्ति बदल जाती है, बालक स्वयं से संबंधित बातें अधिक करता है, बालकों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बनी रहती है।
3. किशोरावस्था
यह अवस्था 12 वर्ष से लेकर 18 वर्ष के बीच की मानी जाती है। इस अवस्था में किशोरों में महत्त्वपूर्ण शारीरिक, सामाजिक, संवेगात्मक, संज्ञानात्मक विकास होते हैं। इस अवस्था में ऊँची आकांक्षाएँ, कल्पनाएँ नयी आदतें, व्यवहार में भटकाव आदि किशोरों में देखने को मिलता है।
विकास के सिद्धान्त
बहरहाल, सभी व्यक्तियों का विकास एवं वद्धि उनके स्वयं के तौर-तरीकों तथा उनके अपने संदर्भ के आधार पर होता है। यहां पर कुछ मूल सिद्धान्त हैं जिसके कारण विकास की प्रक्रिया होती है और सभी मानव जाति में इसे देखा जा सकता है। इन्हें विकास का सिद्धान्त कहा जाता है। आइए अब हम इसका उल्लेख करें।
1. विकास पद्धति का अनुसरण
सभी मानव जाति में, विकास सुव्यवस्थित, सुसंगठित तथा प्रतिरूप तरीके के तौर पर होता है। प्रत्येक प्रजातियों की विशिष्ट पद्धति होती है जिसका कि उसके सभी सदस्य अनुसरण करते हैं। विकास का क्रम भी एक समान होता है। उदाहरणार्थ, सभी बच्चे मुड़ना, रेंगना, खड़ा होना और तत्पश्चात् चलना सीखते हैं। वे एक विशेष अवस्था में पहुंचते हैं, परन्तु उनका श्रम अथवा तरीका एक समान ही रहेगा।
व्याकरण का अध्ययन करते समय क्रिया से पहले सदैव संज्ञा के बारे में सीख जाता है। कुछ बच्चे एक-साथ सीख जाते हैं परन्तु बिना संज्ञा की जानकारी के क्रियाओं के बारे में नहीं सीखा जा सकता। भावी विकास प्रत्येक स्तर पर चरणाबद्ध श्रखला का परिणाम होता है जिसमें एक स्थिति पूर्व में गुजर चुकी है तथा एक बाद में घटित्त होगी।
तदाहरणार्थ, एक बच्चा पहले बड़ा होना सीखता है, फिर यह चलने फिरने लगता है और रथाई दांत से पहले बच्चे के दांत निकलते हैं।
क्या यह शारीरिक, व्यावहारिक अथवा नाणी संबंधी पहलू है कि विकास सुव्यवस्थित तौर पर होता है। उदाहरणार्थ, जल्दी विकास शीर्ष से आरम्भ होता है अर्थात शीर्ष से अथवा ऊपरी क्षेत्र से निचले (पुच्छीय) अथवा टेल क्षेत्र तक। दूसरा सिद्धान्त यह है कि बद्धि (ग्रोथ) शरीर के केन्द्रीय अक्ष से बिल्कुल शीर्ग अथवा शीर्षस्थ क्षेत्र की ओर होता है। गति अथवा विकास के द्वारा सामान्य पद्धति को नहीं बदला जा सकता, सभी बच्चे लगभग एक समय पर एक समान मौलिक आधारों से गुजरते हैं।
2. सामान्य से विशेष (ग्लोबल से विश्लेषणात्मक) की ओर विकास की शुरूआत
बच्चे की प्रतिक्रियायें चाहे यह गतिवाही अथवा मानसिक हों विशिष्ट या अनेकीकत होने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती है। उदाहरणार्थ, एक नवजात शिशु पहले एक समय में अपने संपूर्ण शरीर को घुमाता है और तलाश्चात अपने शरीर के विशेष भाग को गतिमान करना सीखता है। इस प्रकार यदि एक बच्चे के पास कोई खिलौना रखते हैं तो वह अपने संपूर्ण शरीर को खिलौना लेने के लिए गतिमान करता है और उसे पकड़ता है। और बढ़ा बच्चा अपने हाथ को बाहर निकालता है क्योंकि उसे पता होता है कि विशेष गति के द्वारा ही उसका उद्देश्य पूरा हो जाएगा।
बोलने में शब्द कहने से पहले बच्चा जब आवाज निकालता है तो उसे कोलाहल कहते हैं। इसी प्रकार, समी खेलने की वस्तुए विशेष नामों के सीखने से पहले “खिलौने” होती हैं। हमारे दिन प्रतिदिन की जिन्दगी में बच्चों का निरीक्षण यह दर्शाता है कि ने पहले साधारण कार्य करते हैं और कुछ समय बाद वे जटिल क्रियायें करने लगते हैं।
3. विकास से समाकलन होता है
एक बार जब बच्चा विशेष अथवा अलग-अलग प्रतिक्रियाओं को सीख लेता है, तब चूकि विकास निरन्तर होता रहता है, वह इन विशिष्ट प्रतिक्रियाओं को संपूर्ण रूप में संश्लेषित अथवा समाकलित कर सकता है। उदाहरणार्थ, प्रारम में एक बच्चा एक तथा छोटे-छोटे शब्दों को बोलना सीखता है। बाद में, यह भाषा के रूप में इन वाक्यों को साथ-साथ मिलाकर बोल सकता है। इसी प्रकार, एक अवयस्क बच्चे के मस्तिष्क में कार के लिए विशेष अवधारणा होती है। बाद में, जैसे-जैसे वह विकास (वद्धि) करता है तो उसकी अवधारणा व्यापक हो जाती है क्योंकि वह नए गहलुओं को आत्मसात करने में समर्थ हो जाता है।
4. विकास की निरन्तरता
शारीरिक, बौद्धित अथवा वाणी का विकास अचानक ही नहीं होता। इसका विकास धीरे धीरे, नियमित गति से होता है। बन्द्धि (ग्रोथ) बच्चे के गर्भ में आने के समय से आरंभ होती है और जोकि परिपक्वता (वयस्कता) की अवस्था तक निरन्तर चलती रहती है। शारीरिक तथा बौद्धिक गुणों का विकास निरन्तर रूप में तब तक होता रहता है जब तक कि वह वद्धि (ग्रोथ) के चरम बिन्दु तक नहीं पहुंच जाते। बद्धि तब तक लगातार चलती रही है जब तक कि उनमें “झटके तथा रुकावटें नहीं आतीं। यह विकास की निरन्तरता की प्रकति है जिसके कारण एक चरण से वद्धि (ग्रोथ) शुरू होती है और अगले चरण की ओर विकास होता है। उदाहरणार्थ, यदि एक बच्चा अपनी विशिष्ट आयु सीमा में एक विशेष कार्य को करने में निपुण नहीं होता, तब यह उसके अगले चरण के विकास कार्य को प्रभावित करेगा। शैशवकाल में खराब वातावरण के कारण भावनात्मक तनाव बाद में बच्चे के व्यक्तित्व को प्रभावित कर सकता है। इसी प्रकार, शिशु अवस्था में उपयुक्त पौष्टिक भोजन देने में लापरवाही से बच्चों का शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से विकास नहीं हा पाता जिससे बाद में विकास रूक सकता है।
5. व्यक्ति विशेष पर विकास दर की विभिन्नता
बहरहाल, सभी तरह के विकास सुव्यवस्थित तथा सुसंगठित रूप से होते हैं लेकिन जिस गति से विकास होता है वह व्यक्ति विशेष पर अलग-अलग होता है।
उदाहरणार्थ, एक 3 वर्ष का बच्चा अंग्रेजी की वर्णमाला को पहचान सकता है जबकि दूसरा 5 वर्ष का बच्चा ऐसा करने में सक्षम नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह है कि 3 वर्ष का बच्चा काफी तेज है अथवा 5 वर्ष का बच्चा पिछड़ा हुआ है। साधारण शब्दों में यह कह सकते हैं कि निपुणता को अर्जित करने अथवा उसमें परिपूर्णता हासिल करने की दर बच्चे बच्चे में अलग-अलग होती है। इस वास्तविकता को प्रमाणित करने के अनुक्रम में, विकास की सीमा (रन्ज ऑफ डेवलपमेन्ट) की अवधारणा शुरू की गई है। वर्णमाला सीखने की रेन्ज, उदाहरणार्थ, है कि बच्चा 3-5 वर्षों में किसी भी समय सीख जाता है। इस आयु सीमा के भीतर आने वाले सभी बच्चे सामान्य रूप में समझे जाते हैं। विकास की दर में विभिन्नता अनेक क्षेत्रों, जैसे दांत निकलने, जिस उम्र में बच्चा बैठने, बड़ा होने, चलने-फिरने तरुण अवस्था आदि के समय, में देखा जा सकता है।
6. शरीर के विभिन्न भागों का विकास विभिन्न दरों पर होना
न तो शरीर के विभिन्न भागों का विकास एक समान दर से होता है और न ही बौद्धिक विकास एक समान दर से होता है। शारीरिक अथवा बौद्धिक विकास के विभिन्न घटकों में वद्धि विभिन्न दरों पर होता है और अलग-अलग समय पर परिपक्वता की अवस्था में पहुंचते हैं। कुछ क्षेत्रों में, शरीर का विकास त्वरित गति से होता है, जबकि दूसरे का विकास धीमी गति से होता है। इस प्रकार, शरीर के अंगों का आकार समय समय पर बदलता रहता है और वद्धि (ग्रोथ) में इन असमानताओं के कारण शरीर वयस्क लगने लगता है।
विकास के सभी क्षेत्र आरंभिक अवस्था में सह-सम्बन्धित होते हैं। एक बच्चा जिसका बौद्धक विकास औसत से अधिक है तो वह सामान्यतः आकार में, ज्यादा सामाजिक
योग्यता तथा विशेष रुचिगों में भी औसत से अधिक होता है। इससे स्पष्ट होता है कि बच्चे का बौद्धिक, शारीरिक, सामाजिक तथा भावनात्मक विकास एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। एक शर्मीला बच्चा स्कूल की गतिविधियों में भाग लेने में समर्थ नहीं होगा। एक विकलांग बच्चे को मित्र बनाने में कठिनाई हो सकती है। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि कैसे विकास का एक घटक दूसरे को प्रभावित करता है।
क्या आप जानते हैं ?
विभिन्न अंगों की लम्बाई, वजन तथा विकास विभिन्न समयों पर पूर्ण रूप से होता है।
उदाहरणार्थ, अनुसंधान अध्ययनों से पता चलता है किः
1. लगभग छः से आठ वर्ष की आयु में मस्तिष्क परिपक्व होते हैं;
2. किशोरावस्था के दौरान पैर, हाथ तथा नाक का अधिकतम विकास होता है।
3. किशोरावस्था के दौरान दिल, लीवर, पाचन प्रणाली आदि का विकास होता है।
किशोरावस्था के पश्चात, विकास का कोई भी एक क्षेत्र दूसरे को विकास की ओर ले जाता है और स्वतन्त्र रूप से विकसित होता है। वैज्ञानिकों के मामले में, उदहारणार्थ, ज्ञानात्मक विकास अन्य क्षेत्रों में पहले घटित होता है। धावक के मामले में शारीरिक विकास अन्य क्षेत्रों से पहले घटित होगा।
7. विकास अहंकेन्द्रवाद से परकेन्द्रवाद की ओर होता है
इसका अर्थ है कि प्रारंभ में बच्चा बहुत ही आत्म केन्द्रित होता है और वह दूसरे के बारे में नहीं सोचता। उसकी आवश्यकत्ताएं और इच्छाएं उतनी ही होती हैं जितनी कि उसे जानकारी है। वह यह भी नहीं समझता कि उसके माता-पिता क्या सोचते अथवा महसूस करते हैं। उदाहरणार्थ, एक दो वर्ष का बच्चा आधी रात में चाकलेट खाने के लिये रोता व चिल्लाता है तब वह यह समझ नहीं पाता है कि उसकी मांग इसलिए पूरी नहीं की जा सकती क्योंकि इस समय बाजार बन्द है। जब वह बड़ा हो जाता है, तब, वह इस अहंकेन्द्रवाद से परकेन्द्रवाद अथवा “अन्य उन्मोषी” अथवा दूसरों के बारे में सोचने लगता है। एक दस साल के बच्चे की भी दो साल के बच्चे के समान ही इच्छा होती है परन्तु वह असंभावी मांग नहीं करता क्योंकि वह नहीं चाहेगा कि उसके माता-पिता को परेशानी हो।
8. विकास परतंत्रता से स्वतंत्रता की ओर ले जाता है
परतंत्रता का अर्थ दूसरों पर आश्रित रहने से है, जबकि स्वतंत्रता का अर्थ स्व निर्भरता से हैं। छोटे बच्चे अपनी देखभाल और कल्याण के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं, परन्तु वयस्क बच्चे स्वयं की देखभाल करने में सश्रम होते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि विकास की गति परतंत्रता से स्वतंत्रता की ओर होती है।
जब एक छोटे बच्चे को भूख लगती है तो वह अपनी मां की प्रतीक्षा करता है कि वह से खाना देगी। दूसरी ओर एक किशारे (वयस्क) बच्चा स्वयं अपने लिए खाना ले सकता है।
9. विकास मविष्य सूचक (प्रेडिक्टेबल) है
जैसा कि विकास के पूर्व सिद्धान्तों में चर्चा की गई है कि प्रत्येक बच्चे के लिए विकास की दर समान रूप से स्थिर होती है। यह इंगित करता है कि इससे यह संभव होता है कि भविष्य में बच्चों के विकास के स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है और कितने अंश पर विशेषकर लम्बाई, वजन, ज्ञानात्मक योग्यता आदि का विकास होगा।
विकास के सिद्धान्तों की जानकारी क्यों महत्वपूर्ण है?
1. इससे हमें यह जानने में मदद मिलती है कि क्या अपेक्षा करते हैं और कब इसकी अपेक्षा है। यह एक विशेष आयु में बच्चे की योग्यता के बारे में सटीक चित्र प्रस्तुत करता है।
2. यह हमें सूचित करता है कि बच्चे में कब विकास होगा और कब विकास नहीं होगा अर्थात यह हमें विकास के लिए अवसरों को उपलब्ध कराने अथवा परिपक्वता की प्रतीक्षा करने के लिए प्रेरित करता है।
3. यह माता-पिता, अध्यापकों तथा बच्चे के साथ कार्य करने वाले अन्य व्यक्तियों को बच्चों के व्यापक विकास से पूर्व तैयारी के लिए सहायता करता है तथा बच्चों की रुचियों एवं व्यवहारों को बदलता है। यह अध्यापकों को बताता है कि क्या पढ़ाना है, कब बढ़ाना है और कैसे पढ़ाना है।
इस प्रकार विकास के सिद्धान्त हमे विकास के विभिन्न चरणों को समझने के लिए आधार प्रदान करते हैं जो कि व्यक्तियों में अलग अलग होता है। बहरहाल, शरीर के भीतर और बाहर कतिपय स्थितियों द्वारा विकास की पद्धति एवं दर में परिवर्तन हो सकता है। कतिपय कारक जैसे पोषण, यौन, बुद्धि, चोट तथा बीमारी, दौड़ने, संस्कति आदि भी इन विभिन्नताओं को उत्पन्न करते हैं।
विकास अध्ययन के लिए दष्टिकोण
विकास की प्रकति तथा प्रमुख सिद्धान्तों पर चर्चा करने के पश्वात्, हम अब कुछ दष्टिकोणों का परीक्षण करेंगे जिसमें मानव जाति के विकास के अध्ययन के लिए अनुसंधानकर्ताओं को लगाया गया है। उनकी सीमाओं तथा सुदढताओं के साथ मानव जाति के विकास के अध्ययन के लिए दो मुख्य दष्टिकोण पर चर्चा की गई है। इन दष्टिकोणों को औजारी की वैरायटी के रूप में प्रयोग किया जा सकता है जैसे साक्षात्कार अनुसूची, प्रश्नावलियां, निर्धारण पैमाना, उपाख्यान, आत्मकथायें आदि। विकास के दो मुख्य एप्रोचों का अध्ययन इस प्रकार है-
1. प्रतिनिध्यात्मक दृष्टिकोण
2. अनुदैर्ध्य दष्टिकोण
1. प्रतिनिध्यात्मक दष्टिकोण
यह अध्ययन विभिन्न आयु वाले कुछ प्रतिनिधि बच्चों पर समान समय पर किया जाता है। सामान्यतः प्रत्येक बच्चे के लिए केवल एक निरीक्षण किया जाता है और अध्ययन में विभिन्न आयु वाले बच्चे को शामिल करके विकासात्मक परिवर्तनों की पहचान की जाती है।
उदाहरणार्थ, एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष और अधिक आयु वाले बच्चों के प्रतिनिधि के कार्य निष्पादन का तुलनात्मक अध्ययन करके उनकी बौद्धिक योग्यता में परिवर्तन की जांच की जा सकती है। इस दष्टिकोण के निम्नलिखित लाभ हैंः
1. लम्बी अवधि के अध्ययनों में यह प्रतिदर्श शक्ति की हानि को रोकता है।
2. यह कम खर्चीला, समय की बचत करने वाला तथा अभिलेख के रख रखाव में सुविधाजनक है।
3. यह व्यावहारिक है।
बहरहाल, इस दष्टिकोण की कतिपय हानियां भी हैं, जो कि इस प्रकार हैं:
1. व्यक्ति की समग्रता तथा वैयक्तिकता नहीं रहती।
2. प्रतिदर्श में व्यक्ति के अध्ययन में विकासात्मक निरन्तरता की हानि होती है।
2. अनुदैर्ध्य दष्टिकोण
जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है कि पूर्वर्ती दष्टिकोण की तुलना में यह विकास का लम्बाई के आधार पर अध्ययन है। यह दष्टिकोण समान व्यक्ति के अध्ययन पर बल देता है।
इस प्रकार यदि नवजात शिशुओं का प्रतिदर्श बनाया जाता है तो वे इनफैन्सी, अर्लीचाइल्डहुड, लेट चाइल्डहुड आदि के माध्यम से देखते हैं। विकास की प्रक्रिया को समझने के लिए, अनेक पद्धतियों का इस्तेमाल किया जाता है। प्याजे इतिहास विधि एक ऐसी विधि का उदाहरण है जो कि लम्बे समय तक होने वाले व्यवहार का अध्ययन करती है। अपनी पुत्री पर आंख व हाथ के समन्वय के अध्ययन की पइगेट अध्ययन अनुदैर्ध्य दृष्टिकोण का एक प्रसिद्ध उदाहरण है।
अनुदैघ्यं दष्टिकोण यह देखने का सबसे अच्छा तरीका है कि वद्धि कैसे होती है?, इसमें कुछ कमियां हैं, जो कि निम्नलिखित है:-
1. दीर्घावधि के लिए बड़े प्रतिदर्श से संपर्क बनाए रखने में कठिनाइयां आती हैं।
2. इसमें ज्यादा समय लगता है और खर्चीला भी है।
3. सब्जेक्ट पर परीक्षणों को बार बार सम्पादित किया जाता है जिससे अंक प्रभावित होते हैं।
विकास को प्रभावित करने वाले कारक
बालक के विकास को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित प्रमुख कारक हैं-
(i) वंशानुक्रम – बालक का रंग, रूप, लंबाई, शारीरिक विकास, बुद्धि, तार्किक क्षमता तथा स्वास्थ्य पर भी आनुवंशिकता का प्रभाव पड़ता है।
(ii) पौष्टिक आहार – शिशु जब गर्भ में होता है तब से ही माँ को पौष्टिक आहार लेना चाहिए और जन्म के बाद यदि बालक को पौष्टिक आहार मिलेगा तभी उसका शारीरिक व मानसिक विकास उचित रूप से हो पाएगा।
(iii) बुद्धि – तीव्र बुद्धि बालकों में सामाजिक, संवेगात्मक, संज्ञानात्मक विकास अधिक देखा जाता है। मंद बुद्धि या औसत से कम बुद्धि वाले बालकों में उपरोक्त विकास अपेक्षाकृत कम होते हैं।
(iv) अंत: स्रावी ग्रंथियों का प्रभाव – अंतःस्रावी ग्रंथियों से निकलने वाले स्राव बालक के शारीरिक व मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं।
(v) लैंगिक भिन्नता – बालकों की अपेक्षा बालिकाओं का मानसिक विकास पहले पूर्ण होता है। परिपक्वता के लक्षण भी बालिकाओं में बालक के अपेक्षा जल्दी विकसित होने लगते हैं।
(vi) वातावरण – बालक जिस भौतिक परिवेश में रहता है उस परिवेश के मौसम, तापमान, वहाँ की ऊँचाई, समाज, संस्कृति आदि का भी प्रभाव बालक के संवेगात्मक, सामाजिक, संज्ञानात्मक, शारीरिक विकास पर पड़ता है। अधिगम और विकास जटिल रूप में अंत:संबंधित हैं। वातावरण समृद्ध और विविधतापूर्ण हो तो विकास और अच्छा होता है।
उपरोक्त के अलावा बालक के विकास को प्रजाति, धर्म, रोग आदि भी प्रभावित करते हैं।
मानव विकास के विभिन्न पक्ष
मानव के वृद्धि व विकास के महत्त्वपूर्ण पक्ष निम्न हैं-
(i) शारीरिक विकास
(ii) मानसिक विकास
(iii) सामाजिक विकास
(iv) संवेगात्मक विकास
(v) क्रियात्मक विकास
(vi) नैतिक विकास
(vii) संज्ञानात्मक विकास
अभिवृद्धि का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and definition of Growth)
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