भारत: मिट्टी (मृदा), भारत में मिट्टी के प्रकार
मिट्टी (मृदा)
भारत में मिट्टी के प्रकार जानने से पहले मिट्टी के बारे में जानना बहुत जरूरी है पृथ्वी के धरातल पर मिट्टियां असंघटित पदार्थों की एक परत है, जो अपक्षय और विघटन के कारकों के माध्यम से चट्टानों और जैव पदार्थों से बनी है।
अपक्षय तथा अपरदन के कारक भू-पृष्ठ की चट्टानों को तोड़कर उसका चूर्ण बना देते हैं। इस चूर्ण में वनस्पति तथा जीव-जंतुओं के गले-सड़े अंश भी सम्मिलित हो जाते हैं जिसे ह्यूमस (Humas) कहते हैं।
चट्टानों में उपस्थित खनिज तथा चूर्ण में मिला हुआ ह्यूमस मिलकर पेड़-पौधों को जीवन प्रदान करता है। मिट्टी की प्राकृतिक क्षमता उर्वरता (Fertility) कहलाती है।
मृदा शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सोलम (Solum) से हुई है जिसका अर्थ फर्श (Floor) है। मृदा के वैज्ञानिक अध्ययन को पेडोलॉजी (Pedology) कहते हैं।
भारत में मिट्टी के प्रकार
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR) द्वारा 1956 में किया गया कार्य सबसे महत्वपूर्ण है। ICAR द्वारा संरचनात्मक मिट्टी और खनिज, मिट्टी के रंग व संसाधनात्मक महत्व को ध्यान में रखते हुए भारत में मिट्टी के प्रकार निम्नलिखत 8 वर्गों में विभाजित किया गया है ।
भारत में मिट्टी के प्रकार निम्नलिखत है।
1. जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil)
भारत में पाई जाने वाली सभी मृदाओं में जलोढ़ मृदा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसको अंतर्गत भारत का लगभग 40% क्षेत्र सम्मिलित है। वस्तुतः जलोढ़ मृदा संपूर्ण विशाल मैदान में पाई जाती है।
यह मृदा हिमालय और निकटवर्ती क्षेत्रों से निकलने वाली सतलज, गंगा, ब्रह्मपुत्र और उनकी सहायक नदियों के अवसादों के निक्षेपित होने से निर्मित है।
जलोढ़ मृदा पूर्वी तटीय मैदान में विशेष रूप से महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टा प्रदेश में पाई जाती है। इसे डेल्टाई मृदा के नाम से भी जाना जाता है।
जलोढ़ मृदा में पोटाश की मात्रा अधिक तथा फास्फोरस की मात्रा कम पाई जाती है। जलोढ़ मृदाओं का रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है।
इसका रंग निक्षेपण को गहराई, जलोढ़ के गठन तथा निर्माण में लगी समयावधि पर निर्भर करता है। जलोढ़ मृदा को आयु के आधार पर निम्न 2 वर्गों में बांटा जाता है।
(i). प्राचीन जलोढ़
प्राचीन जलोढ़ में प्रायः कंकड़ पाए जाते हैं। इसकी अवमृदा में कैल्शियम कार्बोनेट होता है। प्राचीन जलोढ़ की अपेक्षा नवीन जलोढ़ अधिक उर्वर होती है।
प्राचीन जलोढ़ को बांगर (Bangar) तथा नवीन जलोढ़ को खादर (Khadar) कहते हैं। प्राचीन जलोढ़ के अंतर्गत सोडियम लवण अधिक होने के कारण यह क्षारीय होती है।
इसके अलावा इसमें फास्फोरस तथा पोटाश अधिक मात्रा में परंतु नाइट्रोजन एवं जीवाश्म कम मात्रा में पाया जाता है।
(ii). नवीन जलोढ़
खादर मृदाएं प्रतिवर्ष बाढ़ से प्रभावित रहती है और उनके ऊपर सिल्ट की नई परत बिछती रहती है। नवीन जलोढ़ मृदाएं सबसे अधिक उर्वर होती है। इनमें साधारणतया पोटाश, फास्फोरिक अम्ल, चूना एवं जीवांश पर्याप्त मात्रा में होता है लेकिन इनमें नाइट्रोजन एवं ह्यूमस तत्वों की कमी पाई जाती है। शुष्क भागों में इनमें क्षारीय तत्व अधिक मिलता है।
भारत की लगभग आधी जनसंख्या का भरण-पोषण जलोढ़ मृदाओं के द्वारा ही होता है। इन्हें खाद्यान्न उत्पादक मृदा भी कहते हैं।
2. काली / रेगूर मिट्टी (Black or Regur Soil)
क्रिटेशियस काल में बेसाल्टिक लावा के चादरीय निक्षेप तथा उनके विखंड से काली मृदा का निर्माण हुआ है। इसमें लौहे के अंश सापेक्षतः अधिक होते हैं। संरचनात्मक दृष्टि से काली मृदा व उनके क्षेत्रों को निम्न रूप में वर्गीकृत किया गया है।
संरचनात्मक दृष्टि से काली मृदा का वर्गीकरण
गहरी काली-मध्यवर्ती, महाराष्ट्र सामान्य काली मध्य महाराष्ट्र तमिल उच्च भूमि क्षेत्र हल्की काली पूर्वी महाराष्ट्र, काठियावाड़, मालवा तथा झारखंड का राजमहल क्षेत्र, जलोढ़ काली महाराष्ट्र के वर्धा, वेनगंगा तथा पेनगंगा नदी घाटी क्षेत्र।
काली मृदा दक्कन के पठार की प्रमुख मृदा है। इस मृदा का रंग काला होने के कारण इसे काली मृदा कहते हैं। यह मृदा गहरी व अपारगम्य होती है, गीली होने पर यह मृदा फूल कर चिपचिपी हो जाती है। सूखने पर यह सिकुड़ जाती है।
शुष्क ऋतु में इन मृदाओं में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। यह ऐसे प्रतीत होता है जैसे मृदा में स्वतः जुताई हो गई है। नमी के धीमे अवशोषण व नमी क्षय की गति धीमी होने के कारण काली मृदा में लंबी अवधि तक नमी बनी रहती है।
मिट्टी (Soil) : मिट्टी की परिभाषा, मिट्टी का वर्गीकरण
इसके फलस्वरूप फसलों को विशेष रूप से वर्षाधीन फसलों को शुष्क ऋतु में भी नमी मिलती है।
यह मृदा कपास की खेती के लिये उपयुक्त होती है। कपास उत्पन्न किये जाने के कारण इस मृदा को काली कपासी मृदा भी कहा जाता है।
महाराष्ट्र में इसे रेगुर मृदा कहा जाता है। रासायनिक दृष्टि से काली मृदा में चूना, लोहा, मैग्नीशियम तथा ऐलुमिना के तत्व काफी मात्रा में पाये जाते हैं। किंतु फास्फोरस, नाइट्रोजन व जैव पदार्थों की कमी होती है। महाराष्ट्र के अधिकांश भाग मालवा पठार (मध्य प्रदेश), दक्षिणी ओडिशा, उत्तरी कर्नाटक, दक्षिणी आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के सलेम, नामनाथपुरम, कोयंबटूर व तिरूनेलवेली जिलों, सौराष्ट्र व दक्षिणी राजस्थान तथा बुंदेलखंड क्षेत्र तथा झारखंड के राजमहल पहाड़ी क्षेत्र में काली मृदा का विस्तार पाया जाता है। यह गहरे काले रंग से लेकर हल्के काले रंग तक की मृदा है।
3. लाल-पीली मृदा (Red-Yellow Soil)
लाल-पीली मृदा का विकास उन क्षेत्रों में अधिक होता है जहां रवेदार आग्नेय चट्टानें पाई जाती हैं। यह मृदा दक्कन के पठार के पूर्वी तथ दक्षिणी भाग कमे कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पायी जाती है। पश्चिमी घाट के गिरिपद क्षेत्र की एक लंबी पट्टी में लाल दोमट मृदा पाई जाती है। इस मृदा का लाल रंग लौह के व्यापक विसरण के कारण होता है। लाल मृदा जलयोजित होने के कारण पीली दिखाई पड़ती है। महीन कण वाली लाल व पीली मृदाएं सामान्यतः उर्वर होती हैं। इसके विपरीत मोटे कणों वाली मृदाएं अनुर्वर होती है। इनमें सामान्यतः नाइट्रेजन, फास्फोरस तथा ह्यूमस की कमी होती है।
4. लैटेराइट मृदा (Laterite Soil)
लैटेराइट मिट्टी उच्च तापमान व भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं। ये मृदा उष्ण कटिबंधीय वर्षा के कारण हुए तेज निक्षालन का परिणाम हैं। वर्षा के जल के साथ चूना व सिलिका के कण निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड व एल्यूमिनियम के कण मृदा में शेष रह जाते हैं।
इस मृदा में नाइट्रोजन, फास्फेट तथा केल्शियम की कमी होती है किंतु लौह ऑक्साइड व पोटाश की अधिकता होती है। लैटेराइट मृदा पर्याप्त रूप से उपजाऊ नहीं होती है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश व केरल में काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिए लैटेराइट मृदाएं अधिक उपयुक्त हैं।
इसके अलावा इस मिट्टी का प्रयोग ईंट बनाने में किया जाता है। लैटेराइट मृदा सामान्यतः कर्नाटक, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, ओडिशा तथा असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पायी जाती है।
5. मरुस्थलीय विकृति (Desert Soil)
ये मृदाएं पश्चिमी राजस्थान, दक्षिणी हरियाणा, दक्षिणी पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में पायी जाती है। पवन द्वारा उड़ाकर लाई गई ये रेतीली (बलुई) मिट्टियां सिंचाई की सुविधा मिल जाने पर अच्छी उपज दे सकती हैं।
इनमें खनिज लवण अधिक मात्रा में पाये जाते हैं किंतु ये जल में शीघ्र घुल जाते हैं। मरुस्थलीय मिट्टियों में जीवांश की भी कमी होती है। शुष्कता अधिक होने के कारण इनका कृषि कार्यों में कम उपयोग किया जाता है।
राजस्थान में इंदिरा गांधी नहर के द्वारा मरुस्थलीय मिट्टियों की सिंचाई करके गेहूं, कपास, सरसों, चना आदि फसलें पैदा की जाती है। यह मृदा अनुर्वर श्रेणी में सम्मिलित की जाती है क्योंकि इसमें ह्येमस व जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं।
6. पर्वतीय/वनीय मृदा (Hilly/Forest Soil)
यह पर्वतीय ढालों, मध्य एवं शिवालिक हिमालय, पूर्वोतर भारत तथा दक्षिण भारत के उपोष्ण पहाड़ियों पर विकसित मृदा है। इसे पर्वतीय मृदा भी कहते हैं। इसमें नाइट्रोजन तथा ह्यूमस पर्याप्त मात्रा में होता है किंतु इस मृदा में गहराई कम होती है तथा यह संरन्ध्रयुक्त होती है। इनमें कहीं-कहीं कंकड़-पत्थर के टकड़े भी मिलते हैं। यह चाय, सेब तथा केसर की कृषि हेतु उपयुक्त होती है। अन और कांगड़ा घाटियों तथा असम में पर्वतीय मिट्टियों में चाय, चावल तथा आलू की खेती की जाती है।
7. पीट एवं जैव मृदा (Peat and Biotic Soil)
यह मृदा अधिक वर्षा एवं उच्च आर्द्रता वाले क्षेत्रों में पाई जाती है। उपयुक्त दशा में वनस्पति की संवृद्धि भी बेहतर होती है जिससे इस मृदा में जीवाश्म के अंश पर्याप्त होते हैं। इसलिए इसमें ह्यूमस अधिक होता है।
कई बार यह 40 से 50% तक होता है। अधिक ह्यूमस के कारण ही यह मृदा भारी एवं गहरे हरे रंग की होती है। इसमें लोहे के अंश भी होते हैं चूंकि यह मृदा वर्षा ऋतु में प्रायः जलमग्न होती है इसलिए प्रायः यहां लवण सापेक्षतः ज्यादा होता है। इसमें फास्फोरस एवं एल्यूमिनियम सल्फेट के अधिक होने के कारण यह पौधों के विकास हेतु हानिकारक होती है।
इसमें फास्फेट तथा पोटाश की कमी होती है। यह मृदा भारत के डेल्टाई क्षेत्र तथा हिमालय की तराई में पाई जाती है। इसके लावा यह सीमित रूप से बिहार ओडिशा, प. बंगाल, तमिलनाडु तथा उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में भी पाई जाती है। यह हल्की उर्वरता वाली फसलों हेतु उपयुक्त मृदा है। इस पर मैंग्रोव वनस्पति का विकसित बेहतर होता है।
8. लवणीय मृदा (Saline Soil)
भारत के दलदली, शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क भागों में लवणीय मृदा पाई जाती हैं। इसका सर्वाधिक विस्तार कच्छ के रण में पाया जाता है। इसके कई स्थानीय नाम है।