अभिवृद्धि और विकास के सिद्धांत principles of Growth and Development
अभिवृद्धि और विकास के सिद्धांत (principles of Growth and Development)
विकास के सिद्धांत इस प्रकार है –
1- निरंतर विकास का सिद्धांत (Principle of Continuous Development) –
2- समान प्रतिमान का सिद्धांत (Principle of Uniform Pattern)-
इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है। मानव जाति के बालकों के विकास का प्रतिमान संपूर्ण संसार में एक ही है, उसमें किसी प्रकार का अंतर नहीं होता बालक चाहे भारत में पैदा हुआ हो अथवा अमेरिका या यूरोप में उसका शारीरिक, मानसिक, भाषा, गति, और संवेगात्मक विकास समान रूप से होता है।
3- विशिष्ट क्रम का सिद्धांत (Principle of Specific Pattern)-
बालक का विकास एक विशिष्ट क्रम में चलता है। गति विकास की में सर्वप्रथम बालक बैठना सीखता है, फिर खड़ा होना सीखता है और उसके बाद चलना सीखता है। इसी प्रकार अपने शारीरिक विकास में पर सर्वप्रथम वह अपने सिर पर नियंत्रण प्राप्त करता है और फिर शनै:-शनै: ऊपर से नीचे के क्रम में अन्य अवयवों पर नियंत्रण प्राप्त करता है।सबसे पहले बालक के सामने वाले दांत आते हैं और उसके बाद बगल वाले दांत आते हैं। इसी प्रकार बालक की भाषा, सामाजिक और संवेगात्मक आदि के विकास में भी एक विशिष्ट क्रम होता है।
4- सामान्य प्रतिक्रियाओं से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत (Principle of General to Specific Responses)-
बालक का विकास सामान्य प्रतिक्रियाओं से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं की ओर होता है। विकास के सभी क्षेत्रों में सर्वप्रथम वह सामान्य प्रतिक्रियाये ही दिखला पाता है। नवजात शिशु किसी कारण उत्तेजित होने पर संपूर्ण शरीर को हिलाता है। इसी प्रकार सर्वप्रथम शिशु अपने पूरे हाथ को सामान्य रूप से उठाता है, उसके बाद ही वह हाथ संबंधी कोई विशिष्ट गति दिखला पाता है। भाषा में बालक सर्वप्रथम निरर्थक ध्वनिया उत्पन्न करता है, उसके बाद ही वह कुछ सार्थक शब्दों को स्पष्टत: उच्चारित करने में समर्थ हो पाता है। प्रारंभ में रोते समय बालक संपूर्ण शरीर हिलाता है, लेकिन कुछ बड़ा होने पर आंखों और मुंह का ही प्रयोग करता है और शनै:- शनै: क्रोध, पीड़ा, ईर्ष्या, हर्ष आदि विभिन्न भावों को प्रकट करने के ढंगों को सीखकर उन पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है।
5- विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत (Principle of Different Rate of Growth)-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक के सभी अंगों का विकास समान गति से ना होकर भिन्न गति से होता है। जन्म के समय नवजात शिशु के विभिन्न अंग एक-दूसरे से विभिन्न अनुपात में होते हैं। हाथ, पैर आदि किशोरावस्था में पूर्ण रूप से विकसित होते हैं। मस्तिष्क अपना अधिकतम तौल लगभग छठे वर्ष में पा लेता है यद्यपि उसका सुसंगठन बाद में भी चलता रहता है। खेल संबंधी रुचियां, बाल्यावस्था में और विषमलिंगीय रुचियां किशोरावस्था में अपनी चरम सीमा पर होती हैं। बाल्यावस्था में रचनात्मक कल्पनाएं बड़ी तेजी से विकसित होती हैं।इसी प्रकार बालक की शारीरिक और मानसिक विकास के विभिन्न अंगों का विकास विभिन्न गति से होता है।
6- सह-संबंध का सिद्धांत (Principle of co-relation)-
इस सिद्धांत के अनुसार विकास की दृष्टि से बालक के अधिकांश गुणों में सहसंबंध पाया जाता है जो बालक एक गुण के विकास में तीव्र होता है वह दूसरे गुण के विकास में भी तीव्र होता है और जो एक गुण के विकास में मंद होता है वह दूसरे गुण के विकास में भी मंन होता है। जिस बालक का बौद्धिक विकास सामान्य से ऊंचा होता है वह आकार, लंबाई, सामाजिकता, ऊंचाई के विकास में भी उत्कृष्ट कोटि का होता है और जिस बालक का बौद्धिक विकास सामान्य से नीचा होता है वह विकास के अन्य क्षेत्रों में भी प्राय: सामान्य से नीचे होता है। इस प्रकार के सभी प्रकार के विकास सहगामी है।
7- एकीकरण का सिद्धांत (Principle of Integration)-
एकीकरण के सिद्धांत के अनुसार बालक सर्वप्रथम एक पूरे अंग को, तथा बाद में उस अंग के विभिन्न भागों को चलाना सीखना है तथा सबसे बाद में वह शरीर के अंग के विभिन्न भागों का एकीकरण करना सीखता है।बालक के मानसिक, संवेगात्मक, शारीरिक विकास परस्पर संबद्ध होते हैं अर्थात मानसिक विकास का प्रभाव शारीरिक एवं संवेगात्मक विकास पर भी पड़ता है और इस प्रकार शारीरिक एवं संवेगात्मक विकास बालक के मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं।
8-वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत (Principle of Integration of Heredity and Involvement)-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास वंशानुक्रम एवं वातावरण की अंतः क्रिया के कारण होता है स्किनर के अनुसार यह स्पष्ट हो चुका है कि वंशानुक्रम उन सीमाओं को निर्धारित करता है, जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार यह भी सिद्ध हो चुका है कि जीवन के आरंभिक वर्षों में दूषित वातावरण,कुपोषण अथवा गंभीर रोग, जन्मजात योग्यताओं को कुंठित अथवा शक्तिहीन बना सकते हैं। वंशानुक्रम में अर्जित विशेषताओं तथा वातावरण जन्य विशेषताओं के योग से ही बालक के विकास की मात्रा, स्वरूप आदि को निर्धारित किया जा सकता है।
9- व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धांत (Principle of Individual Differences)-
इस सिद्धांत के अनुसार विकास के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्तिगत विभिन्नता में पायी जाती हैं। प्रत्येक बालक के विकास का अपना निजी स्वरूप होता है। एक ही आयु के दो बालक और बालिकाओं के शारीरिक विकास में, मानसिक विकास में, गति विकास में, संवेगात्मक विकास में और सामाजिक विकास में स्पष्ट रूप से विभिन्नतायें दिखाई देती है। बालक या बालिका के विकास के हर क्षेत्र में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है। जिसके कारण वह अन्य बालक और बालिका से भिन्न होती है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न बालकों के शारीरिक विकास का ग्राफ तैयार किया और यह निष्कर्ष निकाला कि सब बालकों के विकास की दिशा सामान्यत: एक सी है, परंतु उनके विकास की गति भिन्न थी।
10. अवांछित व्यवहार के स्वत: दूर हो जाने का सिद्धांत(principle of self- removal of undesired behaviour):-
इस सिद्धांत के अनुसार अपने विकास की प्रत्येक अवस्था में बालक कुछ अवांछित करती दिखलाई पड़ते हैं लेकिन विकास की उस अवस्था के समाप्त होने पर ये व्यवहार स्वत: ही दूर हो जाते हैं बाल्यावस्था में बालक बड़े शरारती दिखाई देते हैं वही आपस में खूब झगड़ा करते हैं एक दूसरे को तंग करते या चिढ़ाते हैं वस्तुतः बालको में यह शरारतीपन उनके शारीरिक विकास की दु्त गति के परिणाम स्वरूप होता है और कुछ समय पश्चात यह शरारतीपन स्वत: ही समाप्त हो जाता है बहुत से बालक बाल्यावस्था में अपने शरीर और कपड़ों को बहुत शीघ्र ही गंदा कर डालते हैं और शारीरिक स्वच्छता के प्रति बड़े लापरवाह होते हैं लेकिन किशोरावस्था में वही बालक अपने शारीरिक सौंदर्य और कपड़ों की स्वच्छता की और बड़े जागरूक रहते हैं।
बालक के विकास के उपर्युक्त सिद्धांतों का ज्ञान माता-पिता और शिक्षकों के लिए अत्यंत आवश्यक है। इन सिद्धांतों के ज्ञान से माता-पिता और शिक्षकों के लिए बालकों को आवश्यक प्रेरणा देना संभव हो सकेगा तथा शिक्षा की समुचित व्यवस्था की जा सकेगी।
अभिवृद्धि का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and definition of Growth)