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संगोष्ठी Seminar

 संगोष्ठी (Seminar)

संगोष्ठी एक सभा होती है। जिसमें सूचनाओं के आदान-प्रदान के साथ- साथ परिचर्चा भी की जाती है, किंतु संगोष्ठी का स्तर सम्मेलन की अपेक्षा छोटा होता है। संगोष्ठी एवं औपचारिक प्रकृति की होती है जबकि सम्मेलन अधिक विस्तृत एवं अनौपचारिक प्रकृति का होता है। संगोष्ठी में परिचर्चा सीमित समय में अधिक गंभीर विषयों पर होती है। संगोष्ठी भाग लेने वाले प्रत्येक सदस्य को अपने विचार रखने पड़ते हैं। तत्पश्चात उस पर परिचर्चा शुरू होती है। संगोष्ठी के फलस्वरुप मानवीय उस शक्तियों का पोषण किया जाता है तथा अभिनव चिंतन की ओर उसे उन्मुख किया जाता है। यह चिंतन की एक अंतः प्रक्रिया है।

संगोष्ठी के उद्देश्य (Objectives of Seminar) :-

प्रजातांत्रिक प्रबंध-तंत्र एवं अधीनस्थों के लिए संगोष्ठी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे ज्ञानात्मक एवं भावनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।

इसके उद्देश्य निम्न प्रकार के है-

1.ज्ञानात्मक उद्देश्य ( Cognitive Objective) :-

1.अनुसंधानकर्ता में आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक क्षमताओं का विकास करना।

2.अनुसंधानकर्ता में संश्लेषणात्मक एवं मूल्यांकन संबंधी योग्यताओं का विकास करना।

3. अनुसंधानकर्ता में निरीक्षण एवं अनुभव के प्रस्तुतीकरण की क्षमताओं का विकास करना।

4.किसी प्रकरण संबंधी स्पष्टीकरण तथा उनसे संबंधीत समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता का विकास करना।

2.भावनात्मक उद्देश्य (Affective Objectives) :-

1.अन्य अनुसंधानकर्ताओं के विरोधी विचारों,निष्कर्षों एवं दृष्टिकोणों के प्रति सहनशीलता का विकास करना।

2. अन्य अनुसंधानकर्ताओं की शोध परिणामों एवं उपागमों की प्रशंसा करना।

3. अनुसंधानकर्ता में भावनात्मक स्थिरता एवं प्ररेणाओं को प्रोन्नत करना।

4. अन्य अनुसंधानकर्ताओं के प्रति सम्मान की भावना का विकास करना।

संगोष्ठी की प्रक्रिया (Process of Seminar):–

सर्वप्रथम संगोष्ठी हेतु किसी प्रकरण का चयन किया जाता है। विभिन्न संस्थाओं से व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाता है ‌। उनके व्यय के लिए संगठन आर्थिक सहायता देता है। संगोष्ठी का प्रकरण पूर्व नियोजित होता है। संगोष्ठी के कार्य संचालन के लिए भागीदारों में से ही अध्यक्ष का चयन किया जाता है। संचालन प्रक्रिया अध्यक्ष निर्धारित करता है। व्यक्ति जो प्रकरण प्रपत्र तैयार करता है उसे वक्ता कहते हैं। प्रवक्ता प्रकरण को गहनता से तैयार करके प्रस्तुत करता है। तथा उसकी प्रमुख विषय- वस्तु सभी को पहले ही बता देता है जिससे संप्रेषण और विषय वस्तु की स्वरूप को समझने में सहायता मिलती है।

संगोष्ठी का अध्यक्ष यह निर्धारित करता है कि परिचर्चा प्रत्येक व्यक्ति के प्रस्तुतीकरण की अंत में अथवा सभी वक्ताओं द्वारा प्रकरण प्रस्तुत करने के उपरांत ही की जाती है। प्रकरण प्रस्तुत करने के पश्चात अध्यक्ष वाद-विवाद का अवसर प्रदान करता है। वाद-विवाद के समापन पर अध्यक्ष अपने विचार प्रस्तुत करता है। संगोष्ठी की कार्यप्रणाली तथा परिचर्चा की प्रमुख तत्त्वों का आलेख तैयार किया जाता है। उपयोगी प्रकरण तथा वाद-विवाद के निष्कर्षों को प्रकाशित भी किया जाता है।

संगोष्ठी की उपयोगिता / लाभ:-

1. अनुसंधान के उच्च ज्ञानात्मक एवं भावनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति होती है।

2. प्रजातांत्रिक मूल्यों का विकास।

3. प्रस्तुतीकरण एवं तार्किक क्षमताओं का विकास।

4. उत्तम अधिगम आदतों का निर्माण।

5. अनुसंधानकर्ता – एक केंद्रीय बिंदु।

6. स्वतंत्र अध्ययन आदतों का निर्माण।

7. वाद-विवाद संबंधी कौशलों का विकास।

8. स्वाभाविक अधिगम प्रक्रिया।

9. उच्च चिंतन का निर्माण।

10. सामाजिक एवं भावनात्मक गुणों का विकास।

11. अनुसंधान संबंधी व्यक्तिगत अनुभवों का प्रकाशन।

12. विचार विनिमयीकरण की स्वस्थ परंपरा का विकास।

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