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सतत् एवं व्‍यापक मूल्‍यांकन CCE

सतत एवं व्‍यापक मूल्‍यांकन CCE

सतत एवं व्‍यापक मूल्‍यांकन भारत के स्‍कूलों में मूल्‍यांकन के लिए लागु की गई एक नीति है जिसे 2009 में आरम्‍भ किया गया था यह मूल्‍यांकन प्रकिया राज्‍य सरकारों के परीक्षा बोर्ड केंद्रित माध्‍यामिक बोर्ड द्धारा शुरू की गई है
इस पद्धति द्धारा 6 से 10 की कक्षाओं के विद्यार्थी का मूल्‍याकन होता है कुछ विद्यालयों में 12 तक की कक्षा के लिए भी यह मूल्‍यांकन लागू है।

सतत मूल्‍यांकन एवं व्‍यापक मूल्‍यांकन का आशय

सतत् एवं व्‍यापक मूल्‍यांकन विद्यालयी शिक्षा के मूल्‍यांकन पर आधारित एक विशिष्‍ट प्रक्रिया है। जिसका उद्धेश्‍य छात्रों का सर्वागिण विकास करना है ।
इस मूल्‍यांकन प्रक्रिया मे छात्र का वर्ष भर लगातार कुछ समय के अर्न्‍तराल पर छात्रों के सभी पक्षों मे वृद्धि और विकास से संबधित जिसमे उसके पाठयक्रम एवं सहपाठयक्रमी क्रियाओं का मूल्‍यांकन किया जाता है तथा समय रहते उसकी कमियों को पहचान निदांनात्‍मक शिक्षा की व्‍यवस्‍था की जाती है ।

शिक्षा के क्षेत्र में बदलती हुई परिस्थितियों ने विद्यार्थियों के समग्र मूल्यांकन हेतु अब वार्षिक परीक्षा व संपूर्ण पाठ्यक्रम की समाप्ति के पश्चात होने वाली परीक्षा की जगह विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास पर बल दिया जा रहा है। सतत व व्यापक मूल्यांकन इसी सोच का परिणाम है।
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन दो शब्दों सतत तथा व्यापक से मिलकर बना है।

मूल्यांकन अध्यापन एवं अधिगम प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का अंतिम सोपान मूल्यांकन ही है। माध्यमिक स्तर पर सतत एवं व्यापक मूल्यांकन को लागू करने का स्पष्ट निर्देश पूर्व में सीबीएसई द्वारा दिया जा चुका है। सतत एवं व्यापक मूल्यांकन की प्रणाली में छात्रों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखा जाता है। सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में दो भाव निहित हैं।

1. सतत मूल्यांकन

2. व्यापक मूल्यांकन

1. सतत मूल्यांकन

सतत मूल्यांकन करने का अर्थ छात्रों के ‘वृद्धि व विकास’ का मूल्यांकन एक बार के बजाय निरंतर करना, क्योंकि अधिगम एक सतत प्रक्रिया है तथा इसका मूल्यांकन भी उसी प्रकार होना चाहिए। सतत मूल्यांकन करने के लिए वर्तमान में तीन प्रकार के मूल्यांकन का प्रयोग किया जाता है-

(i) निदानात्मक मूल्यांकन

(ii) रचनात्मक मूल्यांकन

(iii) संकलनात्मक मूल्यांकन

(i) निदानात्मक मूल्यांकन

जिन बालकों में अधिगम की प्रगति आशानुरूप नहीं होती है ऐसे बालकों में अधिगम संबंधी समस्याओं का विश्लेषण करने के लिए इस मूल्यांकन का प्रयोग किया जाता है तथा इसके बाद उन्हें उपचारात्मक शिक्षण प्रदान किया जाता है।

(ii) रचनात्मक मूल्यांकन

ऐसे मूल्यांकन के माध्यम से अधिगम की प्रगति का आकलन एवं निर्धारण किया जाता है। इसके लिए गृह कार्य, क्लास टेस्ट, दत्त कार्य (Assignments), क्वीज टेस्ट आदि का प्रयोग किया जाता है। इनसे प्राप्त परिणामस्वरूप छात्रों को फीडबैक दिया जाता है। शिक्षक अपने शिक्षण विधि तथा छात्र अपने संज्ञानात्मक व्यवहार में सुधार करते हैं। इसी कारण इसे रचनात्मक मूल्यांकन कहते हैं।

(iii) संकलनात्मक मूल्यांकन

ऐसे मूल्यांकन का प्रयोग संपूर्ण सत्र की समाप्ति के बाद किया जाता है। इस प्रकार के मूल्यांकन का ‘उद्देश्य अधिगम प्रगति तथा शैक्षिक उपलब्धि का आकलन करना होता है।

2. व्यापक मूल्यांकन

सतत मूल्यांकन व्यवहार के सिर्फ संज्ञानात्मक मूल्यांकन करता है, जबकि व्यापक मूल्यांकन व्यवहार के तीनों पक्ष संज्ञानात्मक, भावात्मक, क्रियात्मक का मूल्यांकन करता है। विद्यालय की संपूर्ण शैक्षिक गतिविधियों के संदर्भ में इसका प्रयोग किया जाता है। इससे शैक्षिक एवं गैर-शैक्षिक दोनों पक्षों का आकलन होता है। इसके लिए प्रेक्षण विधि समाजमिति, मनोवृत्ति आदी मापनी का प्रयोग किया जाता है।

सतत एवं व्‍यापक मूल्‍यांकन का महत्‍व

   1.यह अधिगम कर्ता की कठिनाइयों को जानने में मदद करता है।
   2.यह अध्यापन को प्रभावशाली व्‍यूह रचनाओं के निर्माण में मदद करता है।
   3.नियमित ऑकडों द्वारा छात्रों की विद्यालयी व सहपाठ्यगामी क्रियाओं की प्रगति जानकर उनका स्‍तर बढानें में मदद करता है।
   4.यह अधिगमकर्ता के प्रर्दशन व वास्‍तविक क्षमता के मध्‍य व्‍याप्‍त अन्‍तर को दूर करने में मदद करता है।
   5.CCE के द्वारा छात्र अपने प्रदर्शन की वास्‍तविक स्थिति को जानकर उपचारात्‍मक शिक्षण के द्वारा अपने अधिगम में सुधार कर सकते हैं या बढा सकते हैं।
   6.छात्र के अधिगम में क्‍या कठिनाईयॉ है ये जानने के लिए उपयुक्‍त आंकलन प्रविधियॉ की प्रयोजना बनाने में सहायक है।
   7.नैदानिक शिक्षण की उपयुक्‍त व प्रभावी रूप रेखा के निर्माण में सहायक है।
   8.यह अनुदेशनात्‍मक व्‍यूह रचनाओं में सुधार करके अधिगम शिक्षण की प्रभावशीलता बढानें में सहायक है।
   9.य‍ह समय-समय पर अभिवाहको व शिक्षकों को छात्रों कि उपलब्‍धि के प्रति जागरूक करने में मदद करता है ।
   10.यह पूरी मूल्‍यांकन प्रक्रिया को प्रभावी बनाने में मदद करता है।
   11.इसके द्धारा छात्र की बौद्धिक, भावात्‍मक, सांस्‍कृतिक तथा सामाजिक विकास आदि मे पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को दृष्टिगत रखते हुए वर्तमान समप्राप्ति को जानने मे मदद मिलती है
   12.यह छात्र को अपना स्वयं का मूल्यांकन करके प्रेरित  करने में मदद करता है।
   इस प्रकार यह छात्रों को प्रेरित करने पृष्ठ पोषण प्रदान करने व अनेक कारणों को अपनाकर उनके अधिगम को बढ़ाने तथा अधिगमकर्ता की वास्तविक विसद व्यापक। चित्रण के निर्माण में सहायक है।

सतत व व्यापक मूल्यांकन की विधियाँ

सतत व व्यापक मूल्यांकन के लिए निम्न प्रमुख विधियों को प्रयोग में लाया जाता है :

साक्षात्कार

• साक्षात्कार आंग्ल भाषा के Interview का हिंदी रूपांतर है जिसका अर्थ है आंतरिक विचार। सामान्यतः इस विधि का प्रयोग कर बालकों के विचार तथा दैनिक जीवन के प्रयोग व अधिगम किए गए ज्ञान को जाना जा सकता है।

प्रश्नावली

• बालकों को प्रश्नों की एक सुनियोजित सूची दी जाती है जिनका उन्हें उत्तर देना होता है तत्पश्चात मूल्यांकन किया जाता है।
• इसका प्रयोग शाब्दिक व चित्रात्मक दोनों रूपों में होता है।

निरीक्षण

• इस विधि का प्रयोग व्यक्तिगत व सामूहिक अध्ययन दोनों के लिए किया जाता है।
• बालकों के मूल्यांकन के लिए यह विधि काफी उपयोगी है।
• प्राकृतिक परिस्थिति में बालक का मूल्यांकन किया जाता है तथा वास्तविक व्यवहार सामने आता है।
• यह विधि वस्तुनिष्ठ, निश्चित क्रमबद्ध, प्रमाणिक तथा विश्वसनीय है।
• व्यवहारवादी इस विधि के प्रयोग पर बल देते हैं।

दत्त कार्य

• बालकों को शिक्षक कुछ ऐसे दत्त कार्य प्रदान करते हैं जिसके द्वारा बालकों के सृजनात्मकता, मौलिकता, संगठनात्मकता आदि गुण जो उनके अंदर छिपे हैं उसे जान सके। यह व्यापक मूल्यांकन के लिए काफी उपयोगी है।

आवधिक परीक्षा

• सतत मूल्यांकन के लिए यह विधि उपयोगी है, क्योंकि यूनिट में जो कुछ पढ़ाया जाता है, उसकी परीक्षा ली जाती है। ऐसा यूनिट खत्म होने के बाद लेने से तुरंत पता चल जाता है कि अधिगम सही तरीके से हो पाया है कि नहीं या फिर निष्पादन के तरीके में कोई कमी है।

वार्षिक परीक्षा

• यह व्यापक मूल्यांकन के लिए उपयोगी विधि है।
उपरोक्त के अलावा जांच सूची, विवरण, वर्णात्मक रिकॉर्ड आदि भी सतत व्यापक मूल्यांकन के सहयोग प्रदान करते हैं।

सतत एवं व्‍यापक मूल्‍यांकन के चरण या अवधि

1.प्रथम चरण ( 5 माह ) 50%

रचनात्‍मक मूल्‍यांकन 1
रचनात्‍मक मूल्‍यांकन 2
योगात्‍मक मूल्‍योकन 1

2.द्धितीय चरण (5 माह) 50%

रचनात्‍मक मूल्‍यांकन 3
रचनात्‍मक मूल्‍यांकन 4
योगात्‍मक मूल्‍यांकन 2

मूयांकन के प्रमुख उपकरण

1.शिक्षण के दौरान अवलोकन
2.शिक्षण योजना बुक
3.बच्‍चों की दैनिक डायरी
4.चैक सीट
5.वर्क सीट
6.समूह शिक्षण या कार्य
7.पेपर पेन्सिल कार्य
8.प्रोजेक्‍ट कार्य
9.अभिवाहकों से संवाद
10.साथी शिक्षकों से संवाद

सह शैक्षिक मूल्‍यांकन

1.जीवन कौशल – खेल, संगीत, गतिविधियां
2.तर्क चिंतन कौशल – मानसिक
3.सामाजिक कौशल – दया, करूणा, सद्भावना, मित्रता, प्रेम
4.संवेगात्‍मक कौशल – क्रोध कितना आता है, क्रोध पर नियंत्रण, स‍हन क्षमता
दोस्तों यह ब्लॉग मेंने विशेषकर आपके लिए तैयार किया हुआ है। मुझे उम्मीद है कि यह पोस्ट आपके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होगी। और आपके शिक्षण कार्य में उपयोगी साबित होगी अगर मेरे इस पोस्ट से आपको लाभ होता है तो कृपया इस पोस्ट को अपने दोस्तों के साथ शेयर करें। और अधिक से अधिक कमेंट करें। आपकी कमेंट और शेयर से मुझे आगे की पोस्ट लिखने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। तो कृपया करके यह पोस्ट अधिक से अधिक शेयर करें।
धन्‍यवाद

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