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sankhya darshan || सांख्य दर्शन

सांख्य दर्शन sankhya darshan भारत की प्राचीन दर्शन परंपरा का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ है। इसकी प्राचीनता इसी से सिद्ध होता हैै कि मनुस्मृति, महाभारत, रामायण, आदि ग्रंथों में इसका वर्णन मिलता है। महाभारत में पंचशिख-जनक-संवाद में सांख्य के मूल सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है। मनुस्मृति में सांख्य-सिद्धांत के आधार पर जगत की उत्पत्ति बताई गई है और भगवद्गीता में तो सांख्य और योग का स्पष्टत: वर्णन है। यही नहीं, उपनिषदों में भी विभिन्न स्थानों पर सांख्य के मूल तत्वों का वर्णन मिलता है।

सांख्य संख्या शास्त्र का नाम क्यों पड़ा ?

इस विषय में मुख्यतः दो मत हैं। प्रथम, सांख्य शब्द गिनती वाचक है। चूंकि इस शास्त्र में तत्वों की संख्या 25 मानी गई है। इसलिए इसे सांख्य कहा गया है। श्रीधराचार्य ने अपनी श्रीमद्भागवत टीका में सांख्य शब्द को यही अर्थ दिया है।

दूसरे, सांख्य शब्द ज्ञानवाची है जिसका प्रयोग ख्यानम् (सम्यक विचार) के अर्थ में होता है। शंकराचार्य ने अपनी भगवद्गीताभाष्य में सांख्य शब्द का यही अभिप्राय दिखलाया है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर जीव का त्रिगुणात्मिक प्रकृति से भेद दिखला कर उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिखलाने की वजह से इस शास्त्र को सांख्य कहा गया। जीव एवं प्रकृति के इस पृथक्करण को विवेक-ख्याति अथवा सत्त्वपुरुषान्ययाख्याति भी कहा गया है। वास्तव में सांख्य शब्द का यही अर्थ समीचीन है। आचार्य पंचशीख का भी यही विचार मालूम होता है। ऋषि पंचशीख ने सांख्य को एकमात्र दर्शन माना है। उनके मतानुसार सांख्य दर्शन ही केवल दर्शन है। इसके संस्थापक हैं।

सांख्य दर्शन का शैक्षिक दृष्टिकोण

सांख्य दर्शन sankhya darshan प्राचीनतम् दर्शन है। इसमें प्रकृति एवं पुरुष के आधार पर सभी ज्ञानेंद्रियों, कर्मेंद्रियों, पांच महाभूतों आदि का जो वर्णन किया गया है वह वास्तव में शिक्षा के मनोवैज्ञानिक स्वरूप को निर्धारित करता है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली का स्वरूप भी तकनीकी शिक्षा पर बल देता है जिसके द्वारा हमारी ज्ञानेंद्रियां व कर्म इंद्रियां प्रभावित होती है।

sankhya darshan सांख्य दर्शन की तत्व मीमांसा से शिक्षा के अंतिम उद्देश्य, ज्ञान मीमांसा से शिक्षा के स्वरूप, शिक्षा की पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों तथा आचार मीमांसा से शिक्षा के सामान्य उद्देश्य, पाठ्यक्रम, अनुशासन और शिक्षक के संबंध के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है। मनुष्य की बाह्य एवं आंतरिक रचना के संबंध में सांख्य मनोविज्ञान आधुनिक मनोविज्ञान से अधिक विकसित है। यहां हम सन के दर्शन में निहित शिक्षा संबंधी विचारों को क्रमबद्ध करने का प्रयत्न करेंगे।

Upanishad philosophy || उपनिषद् दर्शन

सांख्य दर्शन के अनुसार शिक्षा का अर्थ

सांख्य दर्शन sankhya darshan के अनुमान के आधार पर क्रिया करण से पहले ही निहित होता है। जिससे मनुष्य का विकास भी उसमें पहले से ही विद्यमान होता है। शिक्षा तो केवल उसमें निहित शक्तियों को बाहर लाने का एकमात्र प्रयास है। सांख्य दर्शन के अनुसार वास्तविक शिक्षा वह है जो मनुष्य को प्रकृति एवं पुरुष के अंतर का ज्ञान कराएं और इस अंतर के आधार पर मनुष्य सही गलत की पहचान कर सकें, एवं संसार में व्याप्त दु:खों से छुटकारा पा सके।

sankhya darshan के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य

शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है मनुष्य की विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न तत्वों का अध्ययन करना तथा उन तत्वों को शिक्षा द्वारा विकसित करना। सांख्य दर्शन की दृष्टि से मनुष्य का शरीर इंद्रियों, ज्ञानेंद्रियों, कर्मेंद्रियों के योग से बना है। मनुष्य का अंतः करण मन, अहंकार और बुद्धि से मिलकर बना है। जिनके ज्ञान द्वारा इन सभी को परिष्कृत किया जा सकता है।

सांख्य के अनुसार शिक्षा द्वारा इन सबका विकास होना चाहिए। सांख्यिकी अनुसार मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है और यह मुक्ति प्रकृति-पुरुष के भेद को जानने से प्राप्त होती है। अतः मनुष्य का विकास किस रूप में होना चाहिए कि वह प्रकृति-पुरुष के भेद को समझ सके, दुःख से छुटकारा प्राप्त कर सकें, मुक्त हो सके।

आज की भाषा में हम इन उद्देश्यों को निम्नलिखित रुप से क्रमबद्ध कर सकती हैं –

1. दुःख से छुटकारा का उद्देश्य।
2. मानसिक विकास का उद्देश्य।
3. भावात्मक विकास का उद्देश्य
4. बौद्धिक विकास का उद्देश्य।
5. नैतिक विकास का उद्देश्य।
6. शारीरिक विकास का उद्देश्य।

सांख्य दर्शन

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