educational

yoga philosophy || योग दर्शन

yoga philosophy  गीता में बताया गया है कि जहां समत्व है, संतुलन है, अद्वंद है, सामंजस्य है, लयबद्वता है – वहां योग है। इसके विपरीत जहां द्वंद है, असंतुलन है, असामंजस्य है, असंगति है, संघर्ष है, विग्रह है, वहां रोग है। एक योगी व्यक्ति अपने आप से, अपने शरीर से, प्राणशक्ति से, मन से, अपने चारों और की परिस्थितियों और वातावरण से और अंततः समष्टि से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। गीता के अनुसार जो अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है वही सच्चे अर्थों में योगी है।

एक उदार और सम्यक मानसिक दृष्टिकोण अपनाने पर योग पद्धति ज्यादा बल देती है। अष्टांग योग में – यम और नियम-ऐसे दृष्टिकोण का निरूपण करते हैं। यम व्यक्ति और समाज के बीच सामंजस्य स्थापित करने वाले मौलिक नियम हैं। यह पांच हैं –

1. सत्य
2. अहिंसा
3. असत्य
4. अपरिगृह
5. ब्रह्मचार्य

इस तरह यम की वसुधैवकुटुंबकम की भावना सारे मानसिक द्वंदों और संघर्षों को मिटाने में सक्षम है।
यम के समान नियम भी पांच है जो इस तरह हैं –

1. तप
2. संतोष
3. स्वाध्याय
4. शौच
5. ईश्वर प्राणिधान

यह सभी अपने आप को शुद्ध और स्वस्थ रखने के नियम है।

sankhya darshan || सांख्य दर्शन

Upanishad philosophy || उपनिषद् दर्शन

आसन और प्राणायाम

मानव शरीर को सुडौल, क्लांत को दूर कर चित्त को शांत करने और स्वस्थ रहने की रामबाण औषधि का नाम योग और प्राणायाम है। आसन और प्राणायाम हमारे शरीर के बाहरी अंगों से ज्यादा आंतरिक अंगों को प्रभावित करते हैं। उदाहरणार्थ हमारे शरीर के अंदर हमारी नस-नाड़ियों का जाल है। इन नस नाड़ियों और ग्रंथियों पर योगासन गहरा प्रभाव डालकर हमारे शरीर और मन को शुद्ध और स्वस्थ रखते हैं तथा इन्हें सक्रिय बनाते हैं जिससे यह सुचारू रूप से चलते हैं।

ध्यान

ज्ञान के निरंतर अभ्यास से पूर्व जन्म के संस्कार और वासनाएं नष्ट हो जाती हैं पतंजलि ने योग सूत्र में इसका वर्णन किया है। पिछले कुछ वर्षों में ध्यान पर काफी वैज्ञानिक छानबीन की गई है। इन परीक्षणों में पाया गया है कि ध्यान की अवस्था में हमारे शरीर और मन में कई क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं। उदाहरण के लिए शारीरिक एवं मानसिक तनाव का कम होना, हृदय गति का धीमा पढ़ना, ऑक्सीजन की खपत कम होना और मस्तिष्क में अल्फा तरंगों का उठना तथा शांति और आनंद का अनुभव आदि।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अष्टांग योग के आठों अंग – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – सभी शारीरिक और मानसिक रोगों से मुक्त करने में अति सक्षम हैं। योग से हमारे शरीर में अनुशासन आता है। उत्साह बना रहता है। व्यवहार की शुद्धि के साथ इससे कर्त्तव्य-अकर्तव्य ताबूत भी आने लगता है। हम राग-द्वेष, दुःख-सुख, लाभ-हानि तथा जय-पराजय से ऊपर उठने लगती हैं। ये सब हमारे मन, प्राण, इंद्रियों एवं चित्त तक को प्रभावित करते हैं। यह आदर्श स्थिति योग से ही प्राप्त होती है।

व्युत्पत्ति के अनुसार योग का अभिप्राय है –

पतंजलि के अनुसार योग का अर्थ है

चित्तवृत्तियों का निरोध। चित्त से उनका अभिप्राय मनुष्य के अंतः करण यथा मन, अहंकार और बुद्धि से है। चित्तवृत्ति निरोध के लिए पतंजलि ने अष्टांग योग मार्ग का विकास किया है। जिसका वर्णन ऊपर किया गया है।

अतएव भारत की प्राचीन ऋषियों ने चित्त – शुद्धि के लिए विभिन्न प्रकार की निर्देश प्रक्रियाओं का वर्णन किया है जिनको कालांतर में एकत्रित करके महर्षि पतंजलि ने सांख्य के दार्शनिक सिद्धांत के आधार पर सूत्र-रूप में एक स्वतंत्र शास्त्र की रचना की। यह शास्त्र योग दर्शन yoga philosophy के नाम से विख्यात है। वास्तव में यह शास्त्र भारत की संपूर्ण दार्शनिक विचारधाराओं की एक अमूर्त निधि है जिसका अनुसरण सभी संप्रदाय किसी-न-किसी रूप में करते हैं। योग दर्शन समस्त अध्यात्मवाद और उसकी साधना का व्याकरण है।

वास्तव में योग दर्शन yoga philosophy भारत की अपनी विशेषता है। यह अति प्राचीन भारतीय अध्यात्म प्रक्रिया है। वेद, ब्राह्मण और उपनिषदों में योग पर विस्तृत चर्चा है। जैन और बौद्ध साहित्य में भी योग सूत्र में योग पर स्वतंत्र रूप से विचार किया है। तंत्रों में भी योग का स्थान है। गोरखनाथ नाथ संप्रदाय भी योग प्रक्रिया पर आधारित है। इनका हठयोग भारत की भूमि पर खूब पनपा था। आज भी भारत में इस संप्रदाय के अनुयायी विद्यमान हैं।

हठयोग की तरह भारत में मंत्र योग और लय योग भी कभी बड़े प्रसिद्ध रहे हैं। ईसा पूर्व द्वितीय शतक में पतंजलि ने योग सूत्र की रचना कर इसे एक स्वतंत्र दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित किया। अधिकतर विद्वान पतंजलि को ही योग दर्शन yoga philosophy का प्रतिपादक मानते हैं।

पतंजलि ने सांख्य तत्व मीमांसा को स्वीकार किया है। अंतर केवल इतना है कि उन्होंने ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया है और उसे 26 वां तत्व माना है। तभी कुछ विद्वान योग को एकेश्वर सांख्य के नाम से पुकारते हैं। वैसे योग एक स्वतंत्र दर्शन है यह बात दूसरी है कि उसने सांख्य की तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा को स्वीकार किया है। योग की आचार मीमांसा उसकी देन है और वह किसी न किसी रूप में भारत की सभी वेद मूलक दर्शनों को मान्य है।

योग दर्शन

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *