Upanishad philosophy || उपनिषद् दर्शन
उपनिषद् दर्शन Upanishad philosophy सद् धातु में ‘उप’ एवं ‘नि’ उपसर्ग के लगने से उपनिषद शब्द का निर्माण हुआ है। सद् का अर्थ होता है नाश या शिथिल करना । ‘उप’ का अर्थ है ‘समीप’ तथा ‘नि’ का अर्थ होता है।
निश्चयपूर्वक इस प्रकार ‘उपनिषद्’ शब्द से अभिप्राय उस विद्या से है, जिससे अविद्या का आवश्यक रूप से नाश हो, जो मोक्ष की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को ब्राह्म या विद्या के समीप ले जाकर उसका साक्षात्कार करा दे तथा संसार के बंधनों को शिथिल कर दे। यानी कि उपनिषदों में उस विद्या का व्याख्यान है, जिसके द्वारा जिज्ञासु अविद्या का नाश करके संसार के बंधनों से स्वतंत्र होकर परमानंद को प्राप्त करता है ।
उपनिषद का सामान्य अभिप्राय है –
गुरु के समीप बैठकर जानकारी हासिल करना। शंकराचार्य के अनुसार उपनिषद् का अर्थ होता है ब्रह्म ज्ञान,ऐसा ज्ञान जिसके द्वारा भौतिक संसार के प्रति आकर्षण का विनाश होता है और आध्यात्मिक जगत के प्रति आकर्षण बढ़ता है, सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार होता है । वास्तविकता यह है कि वैदिक ऋषियों ने उपनिषदों में वेदों में निहित आध्यात्मिक विद्या के गूढ़तम रहस्यों का वृहद वर्णन किया है । इस प्रत्यन में उनके वेद संबंधी ज्ञान, एवं स्वयं की अनुभूति, तर्क और निर्णय की खास भूमिका रही है।
जिस ऋषि ने उस परम तत्व को जिस रूप में समझा और जाना उसने उसे उसी रूप में प्रतिपादित करने की कोशिश की। श्री शंकराचार्य ने उपनिषदों पर भाष्य से लिखकर उसमें अद्वैत का प्रतिपादन किया है, श्री रामानुजाचार्य के शिष्यों ने उन पर भाष्य लिखकर विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन किया है और श्री माधवाचार्य कि कतिपय उपनिषदों पर भाषण लिखकर उनमें द्वैत का प्रतिपादन किया है। मूल तत्व की प्राप्ति में साधन मार्ग के संबंध में भी उपनिषदों के व्याख्याकारों में मतभेद है।
मीमांसा कर्म मार्ग का प्रतिपादन करता है, वेदांत ज्ञान मार्ग का प्रतिपादन करता है, और योग-क्रिया पर बल देता है। हाँ, यह जरूर है कि सभी दर्शन योग-क्रिया को प्रमुख मानते हैं । तब उपनिषदों के दर्शन (उसकी तत्व, ज्ञान एवं आचार मीमांसा) के संबंध में किसी सर्वमान्य मत का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है। हां, हम इतना कर सकते हैं कि इस परिपेक्ष में उपनिषदों में जो कुछ सर्वमान्य है उसे ही उपनिषद् दर्शन Upanishad philosophy के रूप में स्वीकार करें।
purpose of education || शिक्षा का प्रयोजन
need for innovation || नवाचार की आवश्यकता एवं उद्देश्य
वेद साहित्य कि अपनी श्रृंखला होती है –
वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्। वेद चार हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। मुक्तकोपनिषद के अनुसार उपनिषदों की संख्या 108 है। जिसमें 10 उपनिषद् ऋग्वेद से, 19 शुक्ल यजुर्वेद से, 32 कृष्ण यजुर्वेद से, 16 सामवेद से और 31 अथर्ववेद से संबंध हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इसकी संख्या इससे भी अधिक है। शंकराचार्य ने इसमें से सर्वाधिक महत्व की 11 उपनिषदों- केन, ईश, प्रश्न, कठ, मुंडक, मांडूक्य, तैत्रिरीय, एतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक तथा नृसिंह पूर्वतापनी पर भाष्य लिखे हैं । आज जब हम उपनिषद् दर्शन की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय इन मुख्य उपनिषदों के दार्शनिक चिंतन से ही होता है।
उपनिषद् दर्शन Upanishad philosophy का शैक्षिक दृष्टिकोण
‘ उपनिषद्’ के शाब्दिक अर्थ से उसकी शैक्षिक विचारधारा का भी आभास होता है। उपनिषदों का तात्विक विवेचन संवाद के रूप में है । जिसमें जिज्ञासु शिष्य प्रश्न करता है तथा अपनी शंकाओं को प्रस्तुत करता है और विद्वान गुरु विभिन्न नीतियों से उसकी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास करता है, साथ ही उसकी शंकाओं का निवारण करता है । उपनिषद् की इस परंपरा से निम्नलिखित शैक्षिक विचार स्पष्ट हो जाते हैं-
(क) ज्ञान की प्राप्ति स्वयं प्रयास द्वारा की जा सकती है। परंतु इस प्रक्रिया में गुरु की सहायता एवं मार्गदर्शन अनिवार्य है।
(ख) उपनिषदों के अनुसार ज्ञान रहस्यमय एवं गुप्त है। इसकी प्राप्ति से व्यक्ति की शक्ति अनंत गुनी बढ़ जाती है। परंतु इस ज्ञान को उसी व्यक्ति को प्रदान किया जाना चाहिए जो उसको प्राप्त करने के योग्य है अर्थात् अपात्र को इसे प्रदान नहीं किया जाना चाहिए ।
(ग) शिक्षा सामूहिक न होकर वैयक्तिक प्रक्रिया है जिसमें शिष्य अपनी आवश्यकता, क्षमता और योग्यता के अनुसार अपनी गति से अपनी योजना के अनुसार शिक्षा ग्रहण करता है।