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पाठ्यचर्या का अर्थ, परिभाषा, अवधारणा, विशेषताएं।

pathyacharya ka arth – शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है, जिसके तीन अभिन्न अंग-(1) शिक्षक (2) शिक्षार्थी (3) पाठ्यचर्या।

इनमें बालक की शिक्षा में पाठ्यचर्या की अहम् भूमिका है। पाठ्यचर्या के अभाव में न तो शिक्षक उचित ढंग से शिक्षा दे सकता है और न शिक्षार्थी ही उचित ढंग से शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं । पाठ्यचर्या के अभाव में छात्र अन्धकार में पड़े हुए निःसहाय व्यक्तियों की भाँति भटकते रहते हैं । उनके विकास के लिए विविध क्रियाओं में भाग लेना आवश्यक है । इनके निर्धारण का कार्य पाठ्यचर्या करता है, जिसके आधार पर शिक्षक उन क्रियाओं को करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार इस इकाई में कक्षा या कक्षा के बाहर शिक्षक द्वारा कराये जाने वाले कार्यों को जीवन से सम्बद्ध करने के विषय में जानकारी प्राप्त होगी । इसके साथ ही पाठ्यचर्या के अवधारणा के माध्यम से शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी ।

पाठ्यचर्या का अर्थ pathyacharya ka arth

पाठ्यचर्या शिक्षा प्रक्रिया त्रिमुखी स्वरूप का महत्त्वपूर्ण अंग है। शिक्षा के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षक सीखने-सिखाने की परिस्थितियों (Teaching-learning situations) का नियोजन करता है । इसमें शिक्षण तकनीक, सामाजिक पर्यावरण आदि शामिल होते हैं । इसलिए सामान्य रूप से इस नियोजित कार्यक्रम को पाठ्यचर्या कहते हैं । इस प्रकार पाठ्यचर्या उद्देश्यों की प्राप्ति का एक साधन मात्र है । परन्तु किसी भी दशा में इसे साध्य नहीं माना जा सकता है ।

पाठ्यचर्या का अंग्रेजी भाषान्तर कररिक्युलम (Curriculum) है। इसे हिन्दी में पाठ्यक्रम या शिक्षाक्रम भी कहते हैं । परन्तु यह सर्वथा सही नहीं है । ‘कररिक्युलम’ शब्द की उत्पति लैटिन भाषा के शब्द क्यूरेर (Curere) से हुई है जिसका अर्थ है-दौड़ना । अर्थात कररिक्युलम का अर्थ हुआ-दौड़ का मैदान (Race course)। जिस प्रकार एक व्यक्ति दौड़ के मैदान में दोड़कर अपना लक्ष्य प्राप्त करता है, ठीक उसी प्रकार एक विशेष निश्चित पाठ्यचर्या को पूरा करके छात्र निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करता है ।

पाठ्यचर्या का संकुचित एवं व्यापक अर्थ pathyacharya ka Arth

पाठ्यचर्या का अर्थ अर्थों में लिखा जा सकता है-
(1) संकुचित अर्थ
(2) व्यापक अर्थ

संकुचित अर्थ में पाठ्यचर्या का अभिप्राय केवल एक पाठ्यक्रम (Syallabus) लिया जाता है। इस मत के अनुसार विभिन्न विषयों के अंतर्गत पढ़ाये जाने वाले विषयों के तथ्यों की सीमा या विस्तार निश्चित कर दिया जाता है । पाठ्यचर्या का निर्माण शिक्षाविद् करते हैं। परन्तु व्यापक अर्थ में पाठ्यचर्या का तात्पर्य उन सभी अनुभवों में लिया जाता है जिन्हें बालक अपनी रुचियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार विभिन्न क्रियाओं द्वारा कक्षा के अन्दर या बाहर प्रतिक्षण प्राप्त करता रहता है।

प्रायः लोग पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची शब्द के रूप में करते हैं, परन्तु ये पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इनमें पूर्ण और अंश का अन्तर है। पाठ्यक्रम शिक्षाविद् बनाते हैं जो कि एक कक्षा विशेष में विद्यालय की सीमा में विकसित किये जाते विभिन्न विषयों के ज्ञान की रूपरेखा मात्र होता है। अर्थात् किसी स्तर की पाठ्यचर्या का वह भाग जिसमें उस स्तर के लिए सैद्धान्तिक विषयों के ज्ञान की सीमा निश्चित की जाती है, पाठ्यक्रम (Syllabus) कहलाता है, जबकि पाठ्यचर्या (Curriculum) में नियोजित शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए विद्यालय के अन्दर तथा विद्यालय के बाहर जो कुछ भी नियोजित रूप में किया जाता है, वह शामिल होता है।

पाठ्यचर्या की अवधारणा pathyacharya ki avdharna

पाठ्यचर्या की अवधारणा के सम्बन्ध में दो विचारधाराएँ प्रचलित हैं। यें विचारधाराएँ हैं- प्राचीन या संकुचित अब धारणा (Old or Narrow Concept) तथा आधुनिक अब धारणा (Modern Concept)

1. पाठ्यचर्या की प्राचीन अवधारणा (Old concept of curriculum)—

प्राचीन समय में शिक्षा का उद्देश्य बहुत ही सीमित था । इसलिए छात्रों को संस्कृत, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र आदि जैसे विषयों का केवल मौखिक ज्ञान करा देना ही पाठ्यचर्या में शामिल था। इस प्रकार पुरानी धारणा के अनुसार पाठ्यचर्या ( Curriculum) केवल पाठ्य वस्तु का सैद्धान्तिक ज्ञान करा देने तक ही सीमित था । (It should be understood as merely a syllabus of study) इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन धारणा के अनुसार पाठ्यचर्या (Curriculum) को बहुत ही संकुचित अर्थ में लिया जाता था अर्थात् कुछ तथ्यों का ज्ञान कराना था। यह ज्ञान विभिन्न विषयों द्वारा प्रदान किया जाता है

पाठ्यचर्या (Curriculum) की संकुचित अवधारणा को स्वीकार करते हुए, कनिघम महोदय ने कहा है, “पाठ्यचर्या कलाकार (अध्यापक) के हाथों में वह यंत्र (साधन) है जिसमें वह अपनी वस्तु (छात्र) को अपनी कला-कक्ष (विद्यालय) में अपने आदर्शो (उद्देश्यों) के अनुसार बनाता है ।

ऐलीजाबैथ मैस्सी के मतानुसार “पाठ्यचर्या छात्रों के लिए निर्धारित निर्देशन सामग्री है । “

कार्टर बी. गुड़ इस संदर्भ में कहते हैं, “पाठ्यचर्या निर्देशन की विशिष्ट सामग्री अथवा पाठ्य वस्तु की एक सम्पूर्ण एवं सामान्य योजना है जिसे स्कूल छात्रों के सम्मुख इसलिए प्रस्तुत करता है कि वे स्नातक अथवा व्यावसायिक अथवा पेशे में प्रवेश करने के लिए प्रमाण-पत्र प्राप्त करने योग्य बन जाए ।”

इसी संदर्भ में डॉ. आर. एन. सफाया का मत है, “पाठ्यचर्या स्कूलों में निर्देशन के कार्य के लिए एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित किए गए विषयों के समूह अथवा अध्ययन की विषय-वस्तु है ।”

2. पाठ्यचर्या की आधुनिक अवधारणा (Modern or New Con cept of Curriculum)-

आज हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं। जिसमें एक और निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं तो दूसरी ओर ज्ञान का विस्फोट हो रहा है। इसलिए आज पुराना ज्ञान गलत सिद्ध होता जा रहा है और साथ ही यह भी समस्या है कि क्या ज्ञान दिया जाए, कितना ज्ञान दिया जाए और ज्ञान कैसे दिया जाए। इसका अर्थ है कि आज दिए जाने वाले ज्ञान की समस्या है और साथ ही यह भी समस्या है कि अधिगम किस प्रकार हो। यह जानते हुए कि आज के बालक को इस परिवर्तनशील समाज की आवश्यकताओं से जूझना है, हमें उस ज्ञान अथवा कौशलों का पुनर्वालोकन करना आवश्यक है जो हम बालकों को देना अथवा सिखाना चाहते हैं। वास्तविकता तो यह है कि हमें शैक्षिक उद्देश्यों की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए पाठ्यचर्या (Curriculum) निर्माण पर अधिक ध्यान देना पड़ता है। इसलिए नई पाठ्यचर्या में बालकों की आवश्यकताओं, रुचियों, प्रवृतियों, क्षमताओं एवं व्यावहारिक क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। साथ ही श्रम के महत्व, व्यवसाय प्रधान विषय एवं गतिविधियों पर बल दिया जाता है। इस प्रकार आधुनिक पाठ्यचर्या (Curriculum) की धारणा के अनुसार बालकों के सर्वांगीण विकास के विभिन्न विषयों तथा अनुभवों का समावेश किया जाता है ।,

आधुनिक पाठ्यचर्या की धारणा को स्पष्ट करते हुए हार्न ने कहा है, “पाठ्यचर्या (Curriculum) वह है जिसे बालक को पढ़ाया जाता है। यह सीखने और शान्तिपूर्वक पढ़ने से कुछ अधिक है । इसमें समस्त उद्योग, व्यवसाय, ज्ञानोपार्जन, अभ्यास तथा क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। इस प्रकार यह बालकों के स्नायुमण्डल के संगठन में होने वाली गति एवं संवेगात्मक तत्वों को व्यक्त करता है ।”

फ्रोबेल के मतानुसार “पाठ्यचर्या को मानव जाति के समूचे ज्ञान एवं अनुभव का केन्द्र बिन्दु समझना चाहिए । “

बरुबेकर का कथन है “पाठ्यचर्या सामाजिक अनुभव की निधिक पूंजी है ।”

मुनरो के मतानुसार, “पाठ्यचर्या में वे सभी अनुभव सम्मिलित होते हैं जिनको स्कूल द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है ।”

क्रो एण्ड क्रो के अनुसार “पाठ्यचयां में बच्चे के सभी अनुभव सम्मिलित होते हैं जिन्हें वह स्कूल में या स्कूल के बाहर प्राप्त करता हैं । इन अनुभवों को एक कार्यक्रम में नियोजित किया जाता है जो बच्चों के मानसिक, शारीरिक, सामाजिक, भावात्मक, आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास के लिए बनाया जाता है । “

केसवेल के अनुसार “बच्चों एवं उनके माता-पिता और शिक्षकों के जीवन में आने वाली समस्त क्रियाओं को पाठ्यक्रम (पाठ्यचर्या) कहा जाता है। विद्यार्थी काम करने के समय में जो कुछ भी क्रिया-कलाप करता है उन सभी से पाठ्यचर्या का निर्माण होत है। वस्तुतः पाठ्यचर्या को गतिशील वातावरण कहा गया है।

रुडयार्ड तथा क्रोनबर्न हेनरी ने पाठ्यचर्या के संदर्भ में कहा है, “विस्तृत अर्थ में पाठ्यचर्या (Curriculum) के अन्तर्गत समस्त विद्यालय वातावरण आता है जिसमें विद्यालय में प्राप्त सभी प्रकार के सम्पर्क, पठन, क्रियाएँ एवं विषय सम्मिलित हैं ।’

जान ड्यूवी के मतानुसार, “पाठ्यचर्या की योजना में वर्तमान जीवन की आवश्यकताओं की अनुकूलता का ध्यान रखना चाहिए । इसका चयन इस प्रकार हो कि हमारे सामान्य सामूहिक जीवन में सुधार हो ताकि हमारा भविष्य हमारे अतीत से अच्छा हो । “

किलपैट्रिक के अनुसार, “यह पाठ्यचर्या छात्रों का उस सीमा तक जीवन है, जिस सीमा तक विद्यालय उसे अच्छा या बुरा बनाने का दायित्व स्वीकार करता है ।”

माध्यमिक शिक्षा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में आधुनिक पाठ्यचर्या (Modern concept of curriculum) को परिभाषित किया है । इस रिपोर्ट में कहा गया है, “यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आज की सर्वोत्तम विचारधारा के अनुसार पाठ्यचर्या (Curriculum) का अर्थ केवल सैद्धान्तिक विषयों से ही नहीं है, जो विद्यालय में परम्परागत विधि से पढ़ाए जाते हैं। वरन इसमें वे सभी अनुभव पूर्णता निहित हैं जिन्हें बालक विद्यालय में प्राप्त करता है। इस दृष्टि से विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यचर्या (Curriculum) हो जाता है तथा वहाँ छात्रों के जीवन के सभी पक्षों के सम्पर्क में आकर उनके व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास होता है । ”

पाठ्यचर्या की लोकप्रिय परिभाषा  pathyacharya ki paribhasha

उपर्युक्त परिभाषाओं में क्रो एण्ड क्रो (Crow and Crow) की परिभाषा सर्वाधिक प्रिय लगती है, क्योंकि-

(1). इससे ज्ञात होता है पाठ्यचर्या का उद्देश्य भी बालक का सर्वांगीण विकास करना है । उल्लेखनीय है कि शिक्षा का उद्देश्य भी यही है ।

(2). पाठ्यचर्या विद्यालय तक ही सीमित न होकर इसका
विस्तार विद्यालय से बाहर भी है ।

(3). यह परिभाषा बालक के अपने अनुभवों को विशेष महत्त्व देती है ।

(4). यह बालक के सभी पक्षों के शारीरिक, सामाजिक, मानसिक, सांवेगिक,आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास को प्रमुख देती है ।

पाठ्यचर्या अवधारणा की मुख्य विशेषतायें या क्षेत्र Important Aspects or Features of Curriculum

उपर्युक्त परिभाषाओं से पाठ्यचर्या की निम्नलिखित विशेषतायें स्पष्ट होती हैं-

(1) पाठ्यचर्या पूर्व नियोजित होता है। इसका विकास किसी स्थान या कक्षा में अचानक नहीं किया जा सकता ।

(2) किसी भी पाठ्यचर्या के चार आधार

(i) सामाजिक- शक्तियां

(ii) स्वीकृत सिद्धान्त या सिद्धान्तों द्वारा उपलब्धता के रूप में मनुष्य का ज्ञान

(iii) अधिगम की प्रकृति और ज्ञान और पहचान

(iv) मानव विकास की प्रकृति हैं ।

(3) पाठ्यचर्या के उद्देश्य शैक्षिक लक्ष्यों में निहित हैं । यही उद्देश्य इसके परिणाम हैं और इन्हीं को पाठ्यचर्या द्वारा प्राप्त करना होता है ।

(4) पाठ्यचर्या शिक्षक द्वारा अनुदेशन की योजना द्वारा संचालित होती है ।

(5) शिक्षक उन्हीं अधिगम अनुभवों की योजना को अपनी कक्षा में लागू करता है । ये अधिगम अनुभव छात्रों के स्तर के अनुसार होते हैं।

(6) व्यक्तिगत अधिकर्त्ता के वास्तविक पाठ्यचर्या के कारण अभिप्रेरित पाठ्यक्रम और संचालित पाठ्यचर्या में अन्तर होता है। इसके कारण शिक्षक की भूमिका जटिल हो जाती है। ऐसी स्थिति में शिक्षक को विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है ।

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