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शिक्षण को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting Teaching

शिक्षण को प्रभावित करने वाले कारक(Factors Affecting Teaching):-

शिक्षा एक जटिल प्रक्रिया है जिसे अनगिनत तत्व प्रभावित करते हैं। यदि शिक्षक की शिक्षण प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं रहेगी तो छात्र कुछ सीख नहीं पाएंगे और अंततः अधिगम की अधिकता हेतु शिक्षण का प्रभावी होना आवश्यक है।
सुविधा की दृष्टि से इन्हें निम्नलिखित वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
1.शिक्षक की मानसिक एवं शारीरिक की योग्यताएं।
2.शिक्षक की शिक्षण संबंधी कुशलताएं।
3.शिक्षक का शिक्षण विधियों पर एकाधिकार।
4.कक्षागत परिस्थितियां एवं वातावरण।
5.शिक्षक का व्यक्तित्व
6.शिक्षक की प्रेरणाएं एवं प्रतिबद्धता।
उपर्युक्त सभी कारकों को और अधिक संगठित करके निम्नलिखित रुप में प्रस्तुत किया गया है –
(a).स्वीय कारक (personal factors)
(b).बौद्धिक कारक(intellectual factors)
(c).मनोवैज्ञानिक कारक (Psychological Fectors)
 

1.स्वीय कारक (Personal Factors):-

(1).पारिवारिक परिस्थितियां:-

पारिवारिक परिस्थितियों के अंतर्गत भी बहुत-सी बातें आ सकती है-
(अ).घर के आर्थिक हालात
(ब).पति-पत्नी संबंध
(स).बच्चों के प्रति दायित्व
(द).परिवार के सदस्यों के साथ संबंध।
इस प्रकार विद्यालयीय परिस्थितियों के अंतर्गत – 
(अ).शिक्षक के छात्रों के साथ संबंध।
(ब).शिक्षक की अपने सह शिक्षकों के साथ संबंध।
(स).शिक्षक के प्रधानाचार्य या प्रशासन के साथ संबंध।
इन सभी बातों का शिक्षक के मन पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जो बातें शिक्षक के मन को अनुकूल रूप से प्रभावित करती है, वे शिक्षक शिक्षण को प्रभावी बनाती है और जो बातें उसके मन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, वे शिक्षक शिक्षण को अप्रभावी बनाती है।

(2).विद्यालयी परिस्थितियां:- 

विद्यालयी परिस्थितियों के अंतर्गत भी शिक्षकों के अपने अन्य साथियों, शाला प्रधान,प्रशासक आदि के साथ संबंध यदि ठीक है तो वे  शिक्षण को अनुकूल रूप से प्रभावित करते हैं, किंतु यदि ठीक नहीं है तो वें उसके शिक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

2.बौद्धिक कारक (Intellectual Factors) :-

 बुद्धि एक ऐसा अमूर्त तत्व है जो जितना किसी भी प्रकार के रचनात्मक कौशल के लिए महत्वपूर्ण है, उतना ही शिक्षण के लिए भी, क्योंकि शिक्षण सर्वाधिक प्रभावी तब ही हो सकता है,जब शिक्षक,स्वयं को कक्षा की परिस्थितियों के अनुरूप ढाल सके और यह कार्य उस समय तक संभव नहीं जब तक शिक्षक का बौद्धिक स्तर उच्च न हो।
अधिक नहीं तो प्रत्येक कक्षा में कुछ छात्र तो ऐसे मिल ही जाते हैं जो बौद्धिक दृष्टि से कहीं अधिक प्रखर होते हैं। इन छात्रों की जिज्ञासाओं को भी वही शिक्षक शांत कर पाता है जो स्वयं भी बौद्धिक दृष्टि से प्रखर हो।
 शिक्षक बौद्धिक दृष्टि से जितना उच्च स्तर का होगा,उसका शिक्षण सामान्य उतना ही अधिक प्रभावी होगा। यदि शिक्षक प्रखर बुद्धि है तो –
(क). छात्रों की शैक्षिक समस्याओं का समाधान उसी समय करेगा।
(ख). प्रतिभाशाली छात्रों की उत्कण्ठाओं का उत्तर दे सकेंगा।
(ग).बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढाल सकेगा।
(घ).वह इस स्थिति का कहीं सुलभ ढंग से निर्णय लें सकेगा कि कहां तर्क से काम लेना है और कहां अनुभव आधारित ज्ञान से।
(ड). यदि कोई बात ऐसी है जिसे वह स्वयं नहीं जानता तो उसे स्वयं और जल्दी सीखकर शिक्षार्थियों को बता देगा।
(च).यह निर्णय कर सकेगा कि कहां कौन-सी विधि और कौन-सी शिक्षण सामग्री उपयुक्त होगी।
(छ). किसी पाठ की गहराई में वही शिक्षक जा सकेगा,जो बौद्धिक दृष्टि से प्रखर हो।
शिक्षक के बौद्धिक कारक को शिक्षण के नियोजन के रुप में व्यक्त किया जा सकता है। शिक्षक इसके अन्तर्गत तीन क्रियाओं को पूर्ण करता है –

(1). कार्य का विश्लेषण (Analysis of the Task):-

शिक्षक को अपने कार्य की वास्तविक प्रकृति के बारे में समुचित ज्ञान होने के लिए कार्य के विश्लेषण की योग्यता होनी चाहिए। कार्य विश्लेषण की निम्नलिखित विशेषताएं शिक्षक को प्रभावित करती है –
(क). छात्रों की सीखने संबंधी क्रियाएं।
(ख).छात्रों से सीखने संबंधित प्रत्याशित व्यवहार।
(ग).छात्र अधिगम संबंधित परिस्थितियों का ज्ञान।
(घ).आपेक्षित निष्पत्ति के लिए मानदंड का निर्धारण।

2. शिक्षण उद्देश्यों की पहचान करना (Identification of Teaching Objectives):-

शिक्षक द्वारा शिक्षण के लिए उद्देश्यों की पहचान के बिना अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच सकता है। अतः शिक्षण उद्देश्यों की पहचान के द्वारा शिक्षक का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। शिक्षण उद्देश्यों की आवश्यकता पुस्तक के निर्माण से प्रारंभ होती है और छात्रों के मूल्यांकन तक जारी रहती है।

3.अधिगम उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखना (Writing of Learning of Objectives in Behavioural):-

शिक्षक द्वारा अपने शिक्षण कार्य को अपेक्षाकृत वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक बनाने के लिए अधिगम उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप से लिखने की आवश्यकता होती है। क्यों शिक्षण को निम्नलिखित रुप में सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है –
(क).यह उद्देश्यों को विस्तृत रूप प्रदान करता है।
(ख).यह परीक्षण प्रश्नों के चयन में सुगमता प्रदान कर।
(ग).यह शिक्षण एवं अधिगम को संतुलित बनाता है।
(घ).यह शिक्षण की सभी प्रश्नों के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन में सहयोगी है।
(ड).यह शिक्षण युक्तियों, व्यूह संरचना तथा दृश्य-श्रव्य सामग्री के निर्माण में सहायक होते हैं।

मनोवैज्ञानिक कारक :- 

मनोवैज्ञानिक कारकों के तहत अभिक्षमता, रुचि, अभिवृत्ति, मूल प्रवृत्तियां, भावना ग्रंथियां कारक आते हैं।

अभिक्षमता :- 

शिक्षक की बहुत तकलीफ सकती है जो उसे किसी कार्य के प्रति उन्मुख करती है। इसी आधार पर कोई इंजीनियरिंग के कार्य की पसंद करता है तो कोई डॉक्टरी करना। कोई समाज सेवा करना पसंद करता है तो कोई अध्यापन। यहां पर एक बात दृष्टिव्य है कि यदि कोई शिक्षक किसी भौतिक प्रलोभन के कारण किसी व्यवसाय या कार्य को पसंद करता है तो वह उसकी अभिक्षमता ना कह लाकर अभिवृत्ति कहलाती है। शिक्षक का झुकाव मन से अध्यापन की और नही होगा, वह अच्छा शिक्षक बन सके-यह कम ही संभव है। इससे दूसरी और जिस शिक्षक का झुकाव मन से अध्यापन की ओर है, वह यदि अच्छा शिक्षक नहीं है तो प्रयास करने पर अच्छा शिक्षक बन सकता है।

रुचि :- 

रुचि एक ऐसा तत्व है जो किसी भी बात को सीखने और किसी भी काम को करने की पूर्व आवश्यकता है। शिक्षक कितना ही बुद्धिमान और अभिक्षमता वाला क्यों ना हो, उसकी यदि पढ़ाने में रुचि नहीं है तो वह कक्षा में शारीरिक रूप से चला भले ही जाए पढ़ा नहीं पाएगा।

अभिवृत्ति :- 

अभिवृत्ति रुचिका ही प्रगाढ रूप है। जिस कार्य में हमारी रुचि होती है, उस में रुचि लेते-लेते वह हमारी अभिवृत्ति बन जाती है। मानव मन की वह दशा जो अध्यापन की ओर उन्मुख या विमुख करें वही उसकी अभिवृत्ति है।

संवेग:-

हमने संभागों के भी दो रूप देखे थे – 1. जिज्ञासा, साहस आदि धनात्मक संवेग 2. घृणा, भय आदि ऋणात्मक संवेग। धनात्मक संवेगो की,कार्य करने वाले के मन में रचनात्मक होती है और ऋणात्मक संवेगों की प्रतिक्रिया ध्वंसात्मक होती है। संवेग चाहे वे धनात्मक हों या ऋणात्मक,शिक्षक के मन को भी इसी रुप में प्रभावित करते हैं।

भावना ग्रन्थियां :-

 भावना ग्रंथियां भी शिक्षण को प्रतिकूल रूप से ही प्रभावित करती है। जब कोई अच्छा शिक्षक स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है तो उसमें अहं जागृत हो जाता है।अहं के पनपने पर उसका अध्ययन टूट जाता है। अध्ययन टूटने पर अध्यापन में धीरे-धीरे वह कुशलता कम होने लगती है जो उसने पहले अर्जित की थी। यही हाल हीनभावना की है। जब कोई शिक्षक स्वयं को अन्य शिक्षकों की तुलना में हीन समझने लगता है तो उसकी अध्यापन कुशलता में धीरे-धीरे कमी आने लगती है। इस प्रकार दोनों ही प्रकार की भावना ग्रंथियां, शिक्षक को ऋणात्मक रूप से प्रभावित करती है।

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