समायोजन का अर्थ व परिभाषा : (Meaning and Definition of Adjustment)
समायोजन का अर्थ व परिभाषा (Meaning and Definition of Adjustment)
समायोजन का अर्थ – एक छात्र अर्द्धवार्षिक परीक्षा में अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करना अपना लक्ष्य बनाता है पर दूसरे छात्रों को प्रतियोगिता और अपनी कम योग्यता के कारण वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल होता है। इससे वह निराशा और असंतोष, मानसिक तनाव और संवेगात्मक संघर्ष का अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने मौलिक लक्ष्य को त्याग कर अर्थात् अर्द्धवार्षिक परीक्षा में अपनी असफलता के प्रति ध्यान न देकर वार्षिक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करना अपना लक्ष्य बनाता है।
अब यदि वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है तो वह अपनी परिस्थिति या वातावरण से समायोजन कर लेता है पर यदि उसे सफलता नहीं मिलती है तो उनमें असमायोजन उत्पन्न हो जाता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए परिस्थितियों को अनुकूल बनाना या परिस्थितियों के अनुकूल हो जाना ही समायोजन कहलाता है। यह समायोजन व्यक्ति अपनी क्षमता, योग्यता के अनुसार कार्य करता है।
समायोजन की परिभाषा (Definition of Adjustment)
बोरिंग लैंगफेल्ड व वेल्ड, ” समायोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्राणी अपनी आवश्यकताओं और इन आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में संतुलन रखता है।”
गेट्स व अन्य “समायोजन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने और अपने वातावरण के बीच संतुलित सम्बन्ध रखने के लिए अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि समायोजन एक गतिशील प्रक्रिया है। एक व्यक्ति की प्रगतिशीलता का सूचक उसकी व्यापक समस्याएँ न होकर यह है कि वह इन समस्याओं को एवं जीवन में दिन-प्रतिदिन प्रस्तुत होने वाली चुनौतियों को किस प्रकार से स्वीकार कर हल प्रदान करता है।
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समायोजन की प्रक्रिया (Process of Adjustment)
व्यक्ति समायोजन करने के लिए अपने पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश करता है या पर्यावरण के अनुरूप अपना अनुकूलन करने स्वयं बदल जाता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति अपने विचारों, सम्प्रत्ययों, अभिवृत्तियों, प्रत्यक्षण भावनाओं, संवेग तथा क्रियाओं में परिवर्तन करता है। समायोजन की प्रक्रिया को हम निम्न रेखाचित्र द्वारा भी प्रदर्शित कर सकते हैं –
उपरोक्त रेखाचित्र से स्पष्ट है कि व्यक्ति की आवश्यकता प्राप्ति के लक्ष्य में उसके विभिन्न वातावरण प्रभाव डालते हैं। लक्ष्य प्राप्ति न होने पर व्यक्ति में तनाव उत्पन्न होता है। फलस्वरूप व्यक्ति तनाव कम करने के लिए स्वयं में अथवा वातावरण में परिवर्तन करने का प्रयास करता है। यदि वह इस क्रिया में सफल रहता है तो समायोजित हो जाता है।
समायोजन प्रक्रिया की विशेषताएँ (Characteristics of Adjustment Process)
1. समायोजनं एक गतिशील प्रक्रिया है। इसमें व्यक्ति एक बार समायोजित हो जाने पर इस गुण का अनुप्रयोग आगे की परिवर्तनशील परिस्थितियों में करता है।
2. समायोजन प्रक्रिया एक द्विमार्गी प्रक्रिया है। इसमें व्यक्ति पक्ष के साथ-साथ पर्यावरण पक्ष भी प्रभावित होता है।
3. समायोजन एक उद्देश्यमुखी प्रक्रिया है, क्योंकि मानव की समंजन प्रक्रिया उसकी मूल आवश्यकताओं पर निर्भर करती है।
4. समायोजन की प्रक्रिया में उद्देश्य की प्राप्ति न होने पर कुंठा (Frustration) की उत्पत्ति होती है।
5. समायोजन की प्रक्रिया को तीव्र करने के लिए व्यक्ति की अभिप्रेरणा, आकांक्षा का स्तर, आत्म सम्प्रत्यय और शैक्षिक उपलब्धि की मात्रा को समझना आवश्यक होता है।
6. समायोजन के अभाव में व्यक्ति में अपचारिता, प्रमाद, आक्रामकता, आत्मविश्वास में न्यूनता आदि लक्षण प्रायः दिखाई पड़ते हैं।
सुसमायोजित व्यक्ति की विशेषताएँ।
1. एक सुसमायोजित व्यक्ति सामान्य एवं असामान्य दोनों ही परिस्थितियों में धैर्य रखता है तथा अपना संतुलन नहीं खोता है।
2. सुसमायोजित व्यक्ति परिस्थिति के अनुसार स्वयं से परिवर्तन लाने में समर्थ होता है।
3. एक सुसमायोजित व्यक्ति अपने मानसिक द्वंद्वों को तुरन्त निपटा लेता है। उनसे लम्बे अरसे तक नहीं घिरा रहता।
4. सुसमायोजित व्यक्ति में अत्यधिक चिन्ताग्रस्तता का अभाव होता है।
5. सुसमायोजित व्यक्ति व करनी में कम अन्तर होता है, ऐसे व्यक्ति जो कहते हैं, उसे पूरा करने में समर्थ रहते हैं।
6. ऐसे व्यक्ति सामान्यतया संतुष्ट रहते हैं।
7. ऐसे व्यक्ति अपने व दूसरों को समझने में अपेक्षित संवेदनशीलता का परिचय देते हैं।
8. सुसमायोजित व्यक्ति अपने व दूसरों में विश्वास रखते हैं।
अच्छे समायोजन के निर्धारक
अच्छे समायोजन के पहलुओं का निर्धारण हमेशा के लिए नहीं किया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक समाज की संस्कृति तथा मूल्य भिन्न-भिन्न होते हैं और वे समय की माँग तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। समायोजन के कुछ पहलुओं का निर्धारण मनोवैज्ञानिकों द्वारा किया है जो निम्नलिखित हैं-
1. शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health): व्यक्ति को विभिन्न शारीरिक रोगों से मुक्त होना चाहिए। इन शारीरिक रोगों के कारण व्यक्ति की कार्यकुशलता में कमी आती है। फलस्वरूप व्यक्ति का समायोजन प्रभावित होता है।
2. कार्य की कुशलता (Ability of Work): यदि व्यक्ति अपने कार्य को कुशलतापूर्वक पूर्ण करता है तो उद्देश्य प्राप्ति से सरल हो जाती है। अतएव कार्यकुशलता, समायोजन का एक महत्त्वपूर्ण निर्धारक है।
3. मनोवैज्ञानिक शान्ति (Psychological Peace): इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति में किसी प्रकार के मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक रोग नहीं होने चाहिए, क्योंकि ये रोग व्यक्ति के समायोजन को प्रभावित करते हैं।
4. सामाजिक स्वीकृति (Social Accept): प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक स्वीकृति की अभिलाषा रखता है। यदि व्यक्ति समाज के मूल्यों, मानकों, विश्वासों आदि के अनुरूप आचरण करता है तो हम उसे सुसमायोजित कह सकते हैं, परन्तु यदि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज विरोधी क्रियाओं द्वारा करता है तो उसे हम कुसमायोजित व्यक्ति कहते हैं।
समायोजन के विभिन्न तरीके (Various Methods of Adjustment)
बालकों में समायोजन मुख्यतः तीन तरीकों से होता है-
1. रचनात्मक समायोजन : यदि व्यक्ति अपने सम्मुख प्रस्तुत समस्या का समाधान रचनात्मक या उचित तरीके से करता है तो उसे रचनात्मक समायोजन कहा जाता है। जैसे लक्ष्य प्राप्ति के प्रयत्नों में वृद्धि करना, समस्या पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करना, अन्य लोगों से उचित सलाह लेना आदि रचनात्मक कार्य व्यक्ति को समायोजन की ओर ले जाते हैं।
2. स्थानापन्न समायोजन : यदि व्यक्ति द्वारा किए गए प्रयत्नों से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पा रही है तो वह संभावित लक्ष्य का प्रतिस्थापन करके स्वयं को समायोजित कर सकता है, जैसे बालक के सामने कठिनाई उपस्थित होती है और कठिनाई के लिए यदि एक बालक पढ़ाई न करने के कारण कक्षा में कमजोर चल रहा है तो वह अपनी कमजोरी स्वीकार न करके दूसरों पर प्रतिस्थापित कर देता है, जैसे-अध्यापक रोज-रोज छुट्टी पर रहते हैं पढ़ाते नहीं इत्यादि।
3. मानसिक विरचनाएँ : मानसिक विरचनाएँ, जैसे इच्छा का दमन, प्रक्षेपण औचित्य स्थापन का प्रयोग करके भी व्यक्ति कठिनाइयों से बच सकता है तथा समायोजित हो सकता है। इन मानसिक विरचनाओं को रक्षा युक्तियाँ (Defence Mechanism) भी कहते हैं।
जे.एफ. ब्राउन के अनुसार, “मनोरचनाएँ वे चेतन एवं अचेतन प्रक्रियाएँ हैं जिनसे आन्तरिक संघर्ष कम होता है अथवा समाप्त हो जाता है।”
रक्षा युक्तियों की विशेषताएँ (Characteristics of Defence Mechanism)
1. मनोरचनाओं के उपयोग से आन्तरिक अंतर्द्वन्द्व कम या समाप्त हो जाता है।
2. ये वास्तविकता को विकृत करती है।
3. मनोरचनाएँ प्रतिक्रिया करने का ढंग है।
4. यह चेतन और अचेतन किसी भी स्तर पर हो सकती है।
5. इनकी सहायता से व्यक्ति प्रतिबल वाली परिस्थितियों का सामना करता है।
6. इनके उपयोग से उपयुक्तता की भावना बनी रहती है।
रक्षा युक्तियों के प्रकार (Types of Defence Mechanism)
नीचे समायोजन युक्तियों के नीचे प्रकारों को विस्तार पूर्वक बताया गया है।
1. शोधन (Sublimation) : जब व्यक्ति का काम प्रवृत्ति तत्व न होने के कारण उसमें तनाव उत्पन्न करती है, तब वह कला, धर्म, साहित्य, पशुपालन, समाज सेवा आदि में रुचि लेकर अपने तनाव को कम करता है।
2. पृथक्करण (Withdrawal) : इस विधि में व्यक्ति अपने को तनाव उत्पन्न करने वाली स्थिति से पृथक् कर लेता है। उदाहरणार्थ, यदि उसके मित्र उसका मजाक उड़ाते हैं, तो वह उनसे मिलना-जुलना बंद कर देता है।
3. प्रत्यावर्तन (Regression) : इस विधि में व्यक्ति अपने तनाव को कम करने के लिए वैसा ही व्यवहार करता है। जैसा वह पहले कभी करता था। उदाहरणार्थ, जब दो वर्षीय बालक को अपने छोटे भाई के जन्म के कारण अपने माता- पिता का पूर्ण प्रेम मिलना बन्द हो जाता है, तब वह छोटे बच्चे के समान घुटनों के बल चलने लगता है और केवल माँ द्वारा भोजन खिलाये जाने का हठ करता है।
4. दिवास्वप्न (Day dreaming) : इस विधि में व्यक्ति कल्पना जगत् में विचरण करके अपने तनाव को कम करता है। उदाहरणार्थ, निराश प्रेमी अपने काल्पनिक संसार में किसी सुन्दरी को अपनी पत्नी या प्रेयसी बनाकर उसके साथ समागम करता है।
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5. आत्मीकरण (Identification) : इस विधि में व्यक्ति किसी महान् पुरुष अभिनेता राजनीतिज्ञ आदि के साथ एक हो जाने का अनुभव करता है। बालक अपने पिता से और बालिका अपनी माता से तादात्म्य स्थापित करके उनके कार्यों का अनुकरण करते हैं। ऐसा करके उन्हें आनन्द का अनुभव होता है, जिसके फलस्वरूप उनका तनाव कम हो जाता है।
6. निर्भरता (Dependence) : इस विधि में व्यक्ति किसी दूसरे पर निर्भर होकर अपने जीवन का उत्तरदायित्व उसे सौंप देता है। उदाहरणार्थ, कपटों से परेशान होकर मनुष्य किसी महात्मा का शिष्य बन जाता है और उसी के आदेशों एवं उपदेशों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करने लगता है।
7. औचित्य स्थापन (Rationalisation) : इस विधि में व्यक्ति किसी बात का वास्तविक कारण न बताकर ऐसा कारण बताता है जिसे लोग अस्वीकार नहीं कर सकते हैं और इस प्रकार अपने कार्य के औचित्य को सिद्ध करता है। उदाहरणार्थ, देर से विद्यालय आने वाला बालक यह स्वीकार नहीं करता है कि वह स्वयं देर से आया है। इसके विपरीत वह कहता है कि उसकी घड़ी सुस्त हो गई थी या उसे कहीं भेज दिया गया था।
8. दमन (Regression) : इस विधि में व्यक्ति तनाव को कम करने के लिए अपनी इच्छाओं का दमन करता है। उदाहरणार्थ, वह अपनी काम प्रवृत्ति को व्यक्त करके समाज के नैतिक नियमों के विरुद्ध आचरण नहीं कर सकता है। अतः वह इस प्रवृत्ति का पूर्ण रूप से दमन करने का प्रयास करता है।
9. प्रक्षेपण (Projection) : इस विधि में व्यक्ति अपने दोष का आरोपण दूसरे पर करता है। उदाहरणार्थ, यदि बढ़ई द्वारा बनाई गई किवाड़ टेढ़ी हो जाती है तो वह कहता है कि लकड़ी गीली थी।
10. क्षतिपूर्ति (Compensation) : इस विधि में व्यक्ति एक क्षेत्र की कमी को उसी क्षेत्र में या किसी दूसरे क्षेत्र में पूरा करता है। उदाहरणार्थ, पढ़ने-लिखने से कमजोर बालक दिन-रात परिश्रम करके अच्छा छात्र बन जाता है या पढ़ने- लिखने के बजाय खेलकूद की ओर ध्यान देकर यश प्राप्त करता है।
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समायोजन के उपाय (Way to Adjustment)
बालकों को समायोजित करने में उसके माता-पिता तथा शिक्षक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बालक को समायोजित करने के लिए आवश्यक है कि उसे इच्छित लक्ष्यों की ओर उन्मुख किया जाए तथा उसके मानसिक तनावों को कम किया जाए। बालकों को समायोजित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-
1. छात्रों की ओर व्यक्तिगत ध्यान दिया जाए और शिक्षा को बाल केन्द्रित बनाया जाए।
2. स्कूल का वातावरण पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना चाहिए जिससे छात्र प्रश्न पूछ सकें तथा आत्म अभिव्यक्ति कर सकें तथा उसमें सुरक्षा की भावना हो।
3. छात्रों के लिए स्कूल में उपयुक्त पाठ्य सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था की जाए।
4. छात्रों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और वात्सल्यपूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए।
5. शिक्षक का कार्य विद्यालय में शिक्षण के साथ-साथ स्वस्थ वातावरण पैदा करना भी है जो बालक को समायोजन के लिए प्रेरित करता है।
6. माता-पिता घर पर स्वस्थ वातावरण प्रदान करने का प्रयत्न करें तथा स्वयं को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करें।
7. विद्यालय में कठोर अनुशासन नहीं होना चाहिए। अनुशासन दण्ड द्वारा भय दिखाकर नहीं बल्कि छात्रों में नियम पालन तथा उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न करके स्थापित किया जाना चाहिए।
8. छात्रों को उनकी योग्यता के अनुसार विषय दिए जाए, उनकी शिक्षा सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर किया जाए।
9. छात्रों को शिक्षकों द्वारा नियमित जीवन व्यायाम, खान-पान, अच्छे व्यवहार और विचार की आदतें डालने में सहायता दें।
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